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________________ होता है जिसे हम आत्मा कहते हैं लेकिन इनकी पूरी गतिविधियों का संचालन मन करता है । आत्मा न तो शुभ करती है न अशुभ करती है । वह मन को साधन बनाकर शुभ-अशुभ दोनों प्रवृत्तियाँ करा लेती है । इसलिए गंगोत्री तो केवल गंगा का उत्स है, पवित्रता का उद्गम स्थल है लेकिन मन पवित्रता का भी उद्गम स्थल है, और अपवित्रता का भी । क्रोध भी इसी से प्रकट होता है और क्षमा भी । क्रोध अशुभ मन का परिणाम है और क्षमा शुभ मन का । जो सीढ़ी ऊपर की ओर ले जाती है, उसी सीढ़ी से नीचे की और वापस आना पड़ता है और मन उस बंदर सा है, जो इस सीढ़ी पर निरन्तर उछल-कूद करता रहता है | कभी क्रोध में, कभी क्षमा में, कभी राग में, कभी द्वेष में, कहीं अहंकार में, कहीं नम्रता में. कहीं लोभ में, कहीं संतोष में एक ही मन, एक ही दिन में इन सबमें परिवर्तित होता रहता है । घर पर पत्नी से लड़कर आये और किसी गुरु के पास जाकर धोक लगाने लगे, स्वयं को विनम्र प्रगट करने लगे, निश्चित रूप से व्यक्ति को विनम्रता और क्षमाभाव में जीना चाहिए लेकिन क्रोध और वैमनस्य को छिपाकर प्रदर्शित की जाने वाली क्षमा या आत्मीयता मन की प्रपंचपूर्ण वृत्ति नहीं तो और क्या है ? ___ सब एक दूजे से प्रगट होते हैं | जब-जब व्यक्ति के अहंकार को चोट लगती है, तब-तब क्रोध पैदा होता है । जब-जब अपेक्षा, उपेक्षा में बदलती है, तब-तब अहंकार पैदा होता है । व्यक्ति दूसरे के आचार, व्यवहार सब कुछ वैसे ही देखना चाहता है जो उसके मनोनुकुल हो । जब-जब मन के प्रतिकूल कोई प्रतिक्रिया होती है, हम असंतुष्ट हो जाते हैं और जैसे चुल्हे पर दूध उफनता है वैसे ही हमारे मन में उफान आने लगते हैं | जब-जब व्यक्ति के भीतर उफान उठता है तब-तब व्यक्ति तूफान खड़ा करता है । एक ऑफिसर की यह अपेक्षा रहती है कि जब मैं आफिस में जाऊँ, चपरासी मुझे सलाम करे । यदि यह अपेक्षा पूरी न हुई तो मन में विपरीत संवेग पैदा होते हैं । एक पति की अपेक्षा रहती है जब वह आफिस से घर पहुंचे तो पत्नी मुस्कुराहट के साथ स्वागत करे | जब ऐसा नहीं होता है तब भीतर से झल्लाहट पैदा होती है । वास्तव में इन सबको मर्यादा की संज्ञा देकर हम मीठे अहंकार मे जीते हैं और जहर तो जहर ही होता है चाहे, वह मिश्री घुला भी क्य न हो । ६२/ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003891
Book TitleJyoti Kalash Chalke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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