________________
ध्यान चाहे शुभ का हो या अशुभ का, ध्यान तो आखिर ध्यान ही है। इसलिए महावीर ने आर्त और रौद्र चिन्तन को भी ध्यान की संज्ञा दी । धर्म-चिन्तन और शुक्ल-चिन्तन-सभी मनीषियों ने इसे ध्यान माना। लेकिन इस संदर्भ में महावीर और दो कदम आगे बढ़े, कहा-'आर्त और रौद्र-अशुभ चिन्तन, यह भी ध्यान है ।' तुलसीदास के जीवन की वह घटना महावीर के इस चिन्तन के साथ हू-ब-हू मेल खाती है जब उनकी पत्नी कहती है, जितना तुमने मेरा (काम का) चिन्तन किया, उतना ही अगर राम का करते तो बेड़ा पार हो जाता | चिन्तन जारी है, फिर चाहे वह राम का हो या काम का।
यह महावीर की विशेषता है कि वे अशुभ को भी ध्यान की संज्ञा देकर व्यक्ति को ध्यान में प्रवेश कराना चाहते हैं । गुणस्थान के क्रम में महावीर ने केवल सम्यक्त्व को ही गुणस्थान नहीं माना । उन्होंने गुणस्थान क्रम की शुरुआत ही मिथ्यात्व से की है । वे कर्दम में से कमल निखारना चाहते हैं । मिथ्यात्व में से सम्यक्तव का फूल खिलाना चाहते हैं, अशुभ में ही शुभ का बीजारोपण करना चाहते हैं । ___ महावीर कहते हैं 'मानसिक एकाग्रता.....एकाग्रता की आवश्यकता, मात्र अध्यात्म के मार्ग में ही नहीं है । हम जो भी कार्य करें, एकाग्रता के साथ, तन्मयता के साथ, अपने आप को पूरी तरह जोड़कर अहोभाव के साथ । चाहे सूर ने इकतारा बजाया हो, मीरा की करताल चली हो या घंघुरुओं की थिरकन हो, कबीर ने चाहे कपड़े बने हो, रैदास ने जूते सिये हों या गोरा ने मिट्टी पर था दी हों आखिर इन सबको इनसे उपलब्धि तो एकाग्रता और तन्मयता से ही हई है । जिन्हें हम ध्यान और साधना के विराधक तत्त्व मानते हैं, व्यक्ति अगर पूरी तन्मयता के साथ उन कत्यों को पूर्ण करे तो ये कृत्य भी सालम्बन ध्यान में उपयोगी हो सकते हैं । एक साथ कई कृत्यों और वस्तुओं का ध्यान करना हमारी कर्मशक्ति में तो बढ़ोतरी कर सकता है, हम इसे अपनी क्षमता का विकास भी मान सकते हैं, लेकिन ध्यान-शक्ति का विकास तभी होगा जब व्यक्ति, किसी एक कृत्य में पूरी तरह से तन्मय हो। घड़ी के सारे पुर्जे बिखरे पड़े हों तो सबके सब बेकार हैं । लेकिन उन सबको अगर व्यवस्थित रूप से एकत्रित कर दिया जाये तो, समय तुम्हारे हाथ में बंध जायेगा । शक्ति को बिखेरना यह कार्य है और उन्हें इकट्ठा करना, यह ध्यान है । जब ये दोनों सध जाते हैं उसी का नाम प्रज्ञा जागरण है। ६०/ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org