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________________ एकाग्रता तब होती है जब ध्यान का आलम्बन हो । इसलिए ध्यान और मानसिक एकाग्रता दोनों का अन्योन्याश्रित संबंध है । ध्यान का सहारा लेकर ही व्यक्ति मानसिक एकाग्रता में प्रवेश कर पाता है और क्रमश विकास करते हुए साधक समाधि में प्रवेश करता है । मन की शक्ति जो इधर-उधर बिखरी हुई है, और इसी बँटने, बिखेरने और टूटने के कारण ही हम उसकी शक्ति का सदुपयोग नहीं कर पाते हैं । यह हर दिशा में गति कर सकता है, हर कार्य में प्रवेश कर सकता है और अतीत व भविष्य की प्रत्येक कल्पना कर सकता है । शरीर के जितने भी अवयव हैं, सबकी शक्ति सीमित है । आंख सिर्फ देख सकती है. कान सिर्फ सुन सकते हैं, नाक व मुंह की भी अपनी सीमित शक्तियाँ है, लेकिन इसके बावजूद इन सम्पूर्ण शक्तियों का स्वामी अकेला मन ___ महावीर यह नहीं कह रहे हैं कि तुम मन को दबाओ, इसके साथ जोर-जबरन करो, उसकी टाँग खींचो । यह सब ध्यान नहीं हुआ, ध्यान के नाम पर सिर्फ छलावा है । क्योंकि मन जिसे अब तक सिर्फ बंधन का ही कारण माना गया, बेचारे को सदा दबाया गया । काश, इसे मुक्ति का भी कारण माना जाता ! अगर ऐसा किया जाता तो मन की ऊर्जा को एक सही दिशा निर्देश मिलता,और 'मन को मारो' के बजाय 'मन को समझो' की भाषा होती । इसलिए ध्यान न तो मन को मारना है, न दबाना है और न ही बांधना है, ध्यान तो मन की एकाग्रता है । सौ दिशाओं में भटकता मन, किसी एक तत्त्व पर केन्द्रित हो गया, यही ध्यान है । वह बात गौण है कि वह तत्त्व क्या है, भले ही वह तत्त्व परमात्मा हो या पत्नी, दुकान हो या मकान, मन्दिर हो या मूर्ति कोई भी तत्त्व क्यों न हो, जहाँ पर भी एकाग्रता सधी, इसी का नाम ध्यान। __एक बच्चा कक्षा में बैठा है, अध्यापक पाठ पढ़ा रहा है, बच्चे की नजर खिड़की से बाहर जाती है, देखता है चिड़िया अपने बच्चों के मुंह में एक-एक दाना डाल रही है । इसे देखने में वह इतना एकाग्र हो जाता है कि वह कक्षा में है, इसका भी उसे भान नहीं रहता । अचानक एक चॉक का टुकड़ा उसके सिर से टकाराता है । अध्यापक कहता है, 'तुम्हारा ध्यान किधर है ।' छात्र सकपका जाता है, ध्यान उसका भंग हो जाता है । अध्यापक सोचता है, छात्र का ध्यान विचलित है जब कि छात्र पूरी तरह से ध्यान में है । मन : चंचलता और स्थिरता/५९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003891
Book TitleJyoti Kalash Chalke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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