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के दर्पण में पूर्व जन्म प्रतिबिम्बत नहीं होता है, अन्यथा एक जन्म के सम्बन्धों की जानकारी में मन की चंचलता इतनी पराकाष्ठा पर है और मन को साधे बिना अगर अतीत के हजार वर्षों की जानकारी मिल जाये तो मनुष्य पर पागलपन का भूत सवार हो जायेगा । बीस-तीस वर्ष की स्मृति में तो विक्षिप्त हुए जा रहे हो । अगर हजार वर्ष पूर्व की स्मृति हमारे हाथ लग गई तो क्या इस विक्षिप्तता का कोई अंत होगा ! इसलिए अतीत और भविष्य दोनों से मुक्त होकर,व्यक्ति जब वर्तमान का अनुपश्यी बनता है, तभी, वह आत्म तत्त्व को उपलब्ध कर पाता है । _. 'मैं कौन हूँ' यह प्रश्न तुम कब से करते आये हो इसका पता नहीं है। कल भी करते थे, आज भी करते हो । 'मैं कौन हूँ ' यह भी रटा-रटाया प्रश्न और 'मैं आत्मा हूँ' यह भी सुना-सुनाया उत्तर । जब प्रश्न भीतर से नहीं उपजा है, तब उत्तर भीतर से कैसे आयेगा ? 'मैं कौन हूँ' इसलिए भी नहीं पूछा जाना चाहिए कि कभी तुम्हारे गुरु भी सुबह उठकर पूछा करते थे | किसी प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हजार-हजार दफे गुन-गुनाना नहीं पड़ता है । प्रश्न आया है बाहर से और उत्तर पूछ रहे हो भीतर से । 'अहं को आसी', 'कोऽहम्' और 'मैं कौन हूँ'-हजारों वर्ष पहले भी इन्सान यह प्रश्न पूछता आया है और आज भी पूछता है । 'मैं कौन हूँ' यह एक खोज की यात्रा थी और हमने इसे एक जप, जाप की यात्रा बना ली । 'मैं आत्मा हूँ' इसकी अनुभूति तो आवश्यक है पर जाप करना आवश्यक नहीं | 'मैं मनुष्य हूँ' इसका जप कहाँ आवश्यक है ? इसलिए 'मैं कौन हूँ', 'कोऽहम्' से 'सोऽहम्' 'सोऽहम्' से हंसोऽहम्' और 'हंसोऽहम्' से 'शिवोऽहम' की सहयात्रा, यह जीवन की अनुभव पूर्ण उपलब्धि है । लेकिन इन सबको एक मंत्र के रूप में स्वीकार करके, केवल रटन करना और ग्रन्थि-विमोचन का उपक्रम न करना, यह साधना मार्ग की अपूर्णता ही कही जायेगी ।
महावीर कहते हैं 'मानसिक एकाग्रता ही ध्यान है ।' मन शक्ति का स्वामी है । हमारे जीवन में इससे शक्तिशाली तत्त्व आत्मा के सिवा
और कोई नहीं हो सकता । आत्मा का पुद्गल परिणमन ही तो मन है। इसलिए भाव-मन आत्मा है, और द्रव्य-मन के अंतर्गत हमारे विचार आते हैं, मन के समस्त संवेग आते हैं । ये सब द्रव्य-मन के अन्तर्गत ही हैं | ध्यान के माध्यम से व्यक्ति भाव-मन को जागृत करता है और द्रव्य-मन की उच्छंखलताओं को समाप्त करता है । यहाँ एक बात समझने जैसी है कि ध्यान तब सधता है जब मानसिक एकाग्रता हो और मानसिक ५८/ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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