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हों या पराये उनकी ओर नजर मत डालो | क्योंकि दोष हमेशा, हमारी नजरों को अपवित्र करते हैं और चित्त की निर्मलता को समाप्त करते हैं, इसलिए अपने और पराये सभी दोषों को नजरअंदाज करते जाओ अगर देखना चाहते हो तो गुणों को देखो, उन्हें बढ़ावा दो, पुनः पुनः उनका स्मरण करो, ऐसा करने से गुण अपने आप बढ़ते जायेंगे और दोष दबते जाएंगे।
जैसे-जैसे आयु बढ़ती है, वैसे-वैसे सम्बन्ध और फैलते जाते हैं और सम्बन्धों का फैलाव चित्त चांचल्य का सेतु है । बचपन में गिने-चुने सम्बन्ध थे, युवा अवस्था में वे और ज्यादा फैलते गये और वृद्धावस्था में तो हम सम्बन्धों के जाल में ही उलझ जाते हैं । एक बात तय है कि सम्बन्धों की प्रगाढ़ता चित्त की चंचलता में सहायता देती है |
चित्त की एकाग्रता के लिए आत्म-स्मरण की कम, आत्म-अनुभव की ज्यादा जरूरत है । मैं आत्मा हूँ ,इसका पुनः पुनः जाप करने से आत्म- अनुभव नहीं होगा । विश्वास हो जाएगा, पर यह तो ऐसा होगा कि हम भूल न जायें इसलिए पुनः-पुनः स्मरण करके उसको पक्का किया जाता है । मैं मनुष्य हूँ, इसका जाप करने की आवश्यकता नहीं है, अनुभव करने की आवश्यकता है । चित्त को एकाग्र करने की पूर्व भूमिकाओं में, हम कुछ-एक आलम्बन भी स्वीकार कर सकते हैं । जैसेमंदिर में बैठकर किसी मूर्ति को निहारना । नजरों की एकाग्रता से चित्त की एकाग्रता में सहायता मिलती है | लम्बी अवधि तक परमात्मा की मूर्ति को निहारने से, परमात्म स्वरूप को आत्मसात करने की शक्ति तो मिलती ही है, अनेक स्थानों पर भटक रहा मन एक स्थान पर भी टिक जाता है | मंत्र का जाप भी तो इसलिए किया जाता है ताकि मन किसी एक विचार पर आकर केन्द्रित हो जाए । सम्भव है कि सालम्बन ध्यान में भी चित्त की चंचलता जारी रहे, लेकिन क्रमशः अभ्यास से यह चंचलता भी समाप्त हो जाती है । मूर्ति, चित्र, अर्थचिंतन, नामस्मरण आदि ऐसे अनेक आलम्बन हैं, जो ध्यान की पूर्व भूमिका में हमें सहायता दे सकते हैं।
सालम्बन ध्यान से दो कदम आगे बढ़ने के बाद, यह प्रयास किया जाना चाहिए कि दो विकल्पों के बीच के समय के अंतराल को बढ़ाते जाएं । जैसे-जैसे हम विकल्पों के बीच की दूरी को बढ़ाते जाएंगे वैसे-वैसे ध्यान और बढ़ता जाएगा क्योंकि विकल्पों के बीच की शून्य अवस्था ही
५६/ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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