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को एक मानकर, सेक्रिन का उपयोग करना जीवन के साथ तो खिलवाड़ ही कहा जायेगा। _वैसे एक चोर, व्यभिचारी या विषयभोगी मानसिक रूप से एकाग्र तो हो सकता है, लेकिन वह एकाग्रता भी उस स्नान की तरह है जिसमें व्यक्ति कीचड़ के नाले में स्नान करता है । यह क्षणिक एकाग्रता भी चित्त चांचल्य में सहायक बनती है।
ध्यान, चित्त का स्नान है, चित्त की प्रसन्नता है । भीतर में उपजने वाला एक अहोभाव है, जैसे-जैसे व्यक्ति शुभ-दृष्टि या सम-दृष्टि में प्रवेश करता है वैसे-वैसे सर्वत्र मांगल्य के भाव पैदा होते है । यह तो चित्त का स्नान है शुभ-दृष्टि, सम-दृष्टि और सर्वत्र मांगल्य-भाव यह सच में गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम है, जीवन का तीर्थ है, और इसी में स्नान कर व्यक्ति चित्त को प्रक्षालित करता है, और आने वाले कल का तीर्थंकर बन जाता है | ___ शुद्धि और प्रसन्नता-ये चित्त के वे दो परिणाम है जिन्हें हम एकाग्रता की पूर्व सीढ़ियाँ कह सकते हैं । यह क्रमशः विकास है । महावीर ने इसी मार्ग से मंजिल को हासिल किया था । आत्मविकास, यह ध्यान का अंतिम चरण तो हो सकता है लेकिन प्रथम चरण तो, स्व पर विकास ही होना चाहिए। सर्वत्र मांगल्य की कामना, शुभ-दृष्टि और सम-दृष्टि में जीना, चित्त को निर्मल करना । चित्त की इस निर्मलता को ही मैं ध्यान का पहला चरण कहता हूँ | शुद्धि और प्रसन्नता से एकाग्रता की सीढ़ी पर पांव बढ़ते हैं और धीरे-धीरे ऐसा क्रमिक विकास होता है कि व्यक्ति विचार-शंकर से मुक्त हो जाता है । ___ महावीर कहते हैं , 'चित्त की एकाग्रता यही ध्यान है'। इस सूत्र को हमें गहराई से समझना है क्योंकि चित्त की एकाग्रता कहीं भी सध सकती है । परन्तु चित्त को एकाग्र करने से पूर्व चित्त का निर्मलीकरण करना आवश्यक है । यदि गन्दे पात्र में साफ पानी भी डाला गया तो पानी गन्दला हो जायेगा ।
चित्त को शुद्ध कैसे किया जाए ? सुखी से मैत्री और दुःखी के प्रति करुणा चित्त के निर्मलीकरण में सहायक बन सकती है। पूण्य से प्रेम
और पाप के प्रति करुणा, ये सब वे साधन है जो चित्त को धीरे-धीरे बेदाग कर देते है यदि चित्त को निर्मल करना चाहते हो तो सर्व प्रथम पहली क्रिया प्रारम्भ करो कि मैं दोष नहीं देखूगा । दोष भले ही, अपने
___ मन : चंचलता और स्थिरता/५५
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