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________________ जयं भुजंतो भासंती, पावंकम्मं न बंधई । कीमत यतना की है, विवेक की है, तुम्हारे ध्यान की है। हालांकि इन सब में ध्यान सालम्बन होता है, किसी एक पदार्थ के साथ जुड़ा रहता है । यहाँ इतनी सफलता अवश्य प्राप्त हो जाती है कि सौ जगह भटकता मन एक जगह आकर टिक जाता है । लेकिन मन की असली परीक्षा तो आलम्बन रहित ध्यान में होगी, जहाँ मन को टिकाने के लिए कोई विषय न हो, वहीं मन असली स्वरूप दिखायेगा । इस स्थिति का शांत होना ही ध्यान है, योग है, समाधि है । ___ महावीर कहते हैं 'मानसिक एकाग्रता ही ध्यान है ।' वास्तव में मन का चारित्र बड़ा विचित्र है । लम्बे अरसे तक एकाग्रता तो दूर की बात है, चन्द मिनटों के लिए भी एक कमरे में नहीं बैठ सकता । लोग, मन की चंचलता की तुलना बंदर से करते हैं । पर मन, इस तरह की उपमा से भी बहुत आगे है । मन की शक्ति के सामने, बंदर की शक्ति नगण्य है और नगण्य है उसकी चंचलता भी | बंदर चंचलता का प्रतीक है लेकिन उसे भी शांत किया जा सकता है, एक ठौर पर बांधा जा सकता है, उसकी गति की एक सीमा है । लेकिन मन ! न इसे बांधा जा सकता है और नहीं पता लगाया जा सकता है कि इसके कितने ठौर-ठिकाने हैं। ___ महावीर हमें मनस्वी बनाना चाहते हैं, एकाग्र करना चाहते हैं। और उसी एकाग्रता का नाम ही तो ध्यान है । अशुभ से शुभ की ओर, शुभ से शुद्धत्व की ओर यात्रा करना, यही साधनात्मक जीवन का विकास है । ध्यान तो अशुभ में भी हो सकता है । इसलिए महावीर ने अशुभ ध्यान के लिए दो शब्द प्रयुक्त किये-आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान। ये दोनों ध्यान के विकृत रूप हैं । लेकिन जिस ध्यान का सम्बन्ध आत्म तत्त्व के साथ है, वह तो शुभ और शुद्धत्त्व में ही हो सकता है। ___ ध्यान व्यभिचारी का भी होता है । और सही में इतना गहरा ध्यान होता है कि अगर उतनी गहराई से परमात्मा के प्रति जुड़ जाए, तो जीवन का कायाकल्प हो सकता है । व्यभिचारी ध्यान में जीता है, लेकिन यह अशुभ है । ध्यान का मतलब सिर्फ मानसिक एकाग्रता नहीं हैं । उन गलियारों से भी है जिससे होकर ध्यान में पहुंचा जाता है। शक्कर जितनी मीठी होती है उससे ज्यादा 'सेक्रिन' मीठा होता है । माना कि, जिह्वा को तो दोनों ही मिठास देते हैं लेकिन दोनों मिठास ५४/ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003891
Book TitleJyoti Kalash Chalke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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