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________________ 1 1 मन ऐसे ही दौड़ता है । इसकी भाग-दौड़ दिखाई भी नहीं देती । बस एक अनुबंध चाहिए, एक कनेक्शन चाहिए । जहाँ-जहाँ इसका कनेक्शन होगा, वहाँ-वहाँ इसकी तरंगे प्रवाहित हो जायेंगी । मन को पढ़ें, बार-बार पढ़ें ! ठीक वैसे ही पढ़ें जैसे रामायण को पढ़ते हैं । विवेक से मन को रोकना संभव है । धीरे-धीरे मन उपशांत होगा । इसकी गतिविधियाँ शांत होंगी । और मन वहीं आ जायेगा, जहाँ हम स्वयं है । ध्यान में, मन की कसौटी होती है। वहाँ, चित्त की चंचलता की परीक्षा होती है। क्योंकि ध्यान में कोई विषय वस्तु नहीं रहती, एकमात्र चेतना ! सिर्फ ऊर्जा ! इसलिए मन उसमें टिकता नहीं है । क्योंकि मन को विषय चाहिए और ध्यान में विषय का अभाव है । प्रवचन में मन टिक जायेगा, संगीत-संकीर्तन में चित्त एकाग्र हो जायेगा । मंत्र में भी मन कुछ समय तक जुड़ा रहेगा, क्योंकि वहाँ विषय मिला । मन को तो जुड़ने के लिए कोई विषय चाहिए। यह तुम्हारे हाथ में है कि तुम मन को राम से जोड़ते हो या काम से । जब ध्यान में बैठोगे, तभी पता चलेगा कि मन कहाँ-कहाँ जाता है | वहाँ अकेले हो, पूरी तरह से अकेले, बाहर से ही 1 नहीं, भीतर से भी । मन के लिए वहाँ कोई विषय भी नहीं हैं । अब यहाँ असली परीक्षा की घड़ी है-मन टिक पाता है या नहीं। अगर ध्यान में मन टिकता है तो समझो ध्यान में रुचि है और अगर नहीं टिकता है तो समझो कि जहाँ मन गया है, वहीं तुम्हारी रुचि है | यह मन के परीक्षण की घड़ी है | उपनिषद का एक प्रिय वचन है- 'य इह मनुष्याणाम् महत्ताम प्राप्नुवन्ति ध्यानो पादांशा इवैव ते भवन्ति ।' जिस किसी मनुष्य को जिस किसी कार्य में प्रसिद्धि मिलती है, उसमें मूल ध्यान है, मन की एकाग्रता है। ऐसा नहीं है कि ध्यान केवल किसी एक आसान पर बैठने से ही सधता हो, जीवन के हर घटनाक्रम से ध्यान जुड़ा हुआ है । एक वैज्ञानिक का ध्यान, कुछ आविष्कारों के साथ जुड़ा हुआ है, डॉक्टर का ध्यान रोगों के साथ जुड़ा हुआ है । विद्यार्थी का ध्यान, ब्लैकबोर्ड के साथ जुड़ा हुआ है । अगर ऐसा न हो, किसी कार्य को ध्यानपूर्वक न किया गया तो सफलता कभी हाथ न लगेगी । महावीर तो यहाँ तक कहते हैं कि बैठो भी ध्यान से, चलो भी ध्यान से, बोलो भी ध्यानपूर्वक | ध्यानपूर्वक किसी भी कार्य को करोगे तो पाप कर्म का बंधन नहीं होगा । 1 जयं चरे जयं चिठ्ठे, जयं मासे जयं सये । Jain Education International मन : चंचलता और स्थिरता / ५३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003891
Book TitleJyoti Kalash Chalke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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