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? तीन घंटे तक एक कुर्सी से चिपके हैं, उस समय मन न घर गया, न दुकान गया, न बैंक और बाजार ही गया । इतने गहरे सम्मोहित हो जाते हो कि अगर पड़ोसी आवाज दे, तो भी बेसुध । यहाँ तुम्हारा ध्यान फिल्म की ओर है और इसलिए मन वहाँ टिका हुआ है। जितना गहरा रागात्मक संबंध तुम्हारा पत्नी और पति के प्रति है,दुकानऔर मकान के प्रति है वैसा ही सम्मोहन अगर परमात्मा के प्रति हो जाये, तो ध्यान, माला और प्रार्थना में मन भटके, इसकी गुंजाइश कम है ।
हर कार्य मन ही कराता हो, ऐसी बात नहीं है । मन का भी कोई नियामक है जो उसके पीछे बैठा है । वह और कोई नहीं, तुम स्वयं हो। मन सोचता नहीं है, अपितु तुम जो सोचते हो उसी का नाम मन है | मन से मनन होता है और मनन करने वाला ही मनस्विद होता है। ___ मैं हिमालय की यात्रा पर था । जब मैं गंगोत्री पहुँचा तब, वहाँ केवल ध्यान साधक ही थे, आम दर्शनार्थी एक भी न था । कुछ ऐसे सन्त भी थे जो गोमुख से वहाँ आये हुए थे | एक नागा बाबा के बारे में बताया गया कि वे तपोवन में रहते हैं | गंगोत्री में, मैं कई योगियों से मिला, यह समझने के लिए कि आखिर मन के नियमन का उपाय क्या है । एक योगी जो गोमुख में रहते हैं, वहाँ आये हुए थे । जानकर आश्चर्य होगा कि उन्हें यह भी पता नहीं था कि संसार में पुरुष और स्त्री-दो तत्त्व होते हैं । क्या ! मन्दिर और मस्जिद की राजनीति का उन्हें कोई ज्ञान नहीं था । चर्चा के दौरान मैंने पाया कि उन्हें संसार से सम्बन्धित, कुल मिलाकर दस बातों का ज्ञान है । सांसारिक चर्चाओं से उनका कोई सम्बन्ध भी नहीं हैं । जहाँ सम्बन्ध होता है, वहाँ सम्मोहन होता है । उस व्यक्ति का मन सौ जगह क्यों भटकेगा जिसका सम्बन्ध केवल दस लोगों से है | जितने पदार्थों के साथ हमारा सम्बन्ध होगा, मन की गतिविधियाँ उतनी ही बढ़ेंगी । जिस पत्नी के लिए आज मन तड़प रहा है, विवाह से पूर्व क्या उसे एक दफा भी याद किया था ? तब तक उसके साथ कोई मानसिक सम्बन्ध भी न था | आज तुम जब ध्यान में बैठते हो, तब कभी मन फ्रिज की ओर जाता है, कभी टी.वी. की ओर ! सहजतः कल्पना की जा सकती है कि आज से मात्र पचास वर्ष पूर्व, संभवतः किसी का मन टी.वी और फ्रिज की ओर भटका भी न होगा।
मन बहता है, अतीत के संवेग के कारण, अथवा भविष्य की
५०/ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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