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गलत मनोदशा में खोजते हैं। अगर परमात्मा को बाहर भी स्वीकार किया जाये, तो भी हमारी जिन्दगी की आवश्यकताओं की 'क्यू' में परमात्मा सबसे अंत में दिखाई देगा। जब सब ओर से इंसान हार जाता है, तब परमात्मा की शरण स्वीकार करता है । सुख में परमात्मा को बिसराना और दुःख में याद करना स्वार्थान्धता नहीं तो और क्या है ? अपने दुःखों को दूर करने के लिये और स्वार्थ की पूर्ति के लिये भले-भले हर किसी के सामने झुक जाते हैं । व्यक्ति बीमार पड़ता है, रोग को मिटाने के लिये सबसे पहले घरेलू इलाज कराता है । फिर किसी डाक्टर का इलाज कराता है, जब वहाँ ठीक नहीं होता तो आयुर्वेदिक इलाज कराता है, वहाँ से हार गये तो किसी होम्योपैथिक के पास गये | मंत्र, तंत्र, यंत्र जब-सब ओर से व्यक्ति हार जाता है, तब शरण स्वीकार करता परमात्मा की । उन्हीं लोगों के लिये तो कबीर कहते हैं
दुःख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय जो सुख में सुमिरन करें, तो दुःख काहे का होय ।" लोग दु:ख में याद करते हैं । जिन्दगी भर तो सम्पत्ति की शरण स्वीकार करते हैं । जब अस्पताल में सोये होते हैं, तब कहते 'सिद्धे शरणं पवज्जामि ' भगवान की शरण स्वीकार की जाती है दुःख में, और संसार की शरण स्वीकार की जाती है सुख में । किसी मंदिर-मस्जिद में जाकर देख लो, वहां निर्धन और मध्यम वर्गीय परिवारों की ही भीड़ ज्यादा मिलेगी । अधिसंपन्न लोग तो बहुत कम दिखाई देगें । व्यक्ति दुःख में परमात्मा की याद करता है । यह याद नहीं है, सुख की आकांक्षा है । अगर सुख में परमात्मा से प्रार्थना की गयी होती तो वहां मांग सिर्फ परमात्मा की होती । जिसने सुख की व्यर्थता जान ली है, वह व्यक्ति परमात्मा के द्वार पर जाकर परमात्मा को मांग सकता है | बाकी सारी दुनिया तो सिर्फ अपनी मांगों की पूर्ति के लिये जाती है मंदिर । परमात्मा की चाह किसे है | इसीलिये तो दुनिया कहती है, चमत्कार को नमस्कार। दुनिया के लिये ध्यान और साधना की कोई कीमत नहीं होती है । अगर किसी ने एक का दो कर दिया और दो के चार कर दिए, तो लोग उसी के पीछे लट्ट हो जायेंगे । जिन्दगी तो, लोग संसार को सौंपते ही हैं, मंदिर में भी संसार को खड़ा कर देते हैं । परमात्मा का स्वभाव दुःख
परमात्मा : स्वभाव सिद्ध अधिकार/४१
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