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में चढ़ाता है । ऐसे चढ़ाये जाने वाले फूल गुलाब, चम्पा, केतकी के हो सकते हैं, लेकिन श्रद्धा के नहीं हो सकते हैं | अब तो गुलाब के फूल भी उड़ते जा रहे हैं, कागज और प्लास्टिक के फूल चढ़ाये जा रहे हैं। . - महावीर भीतर की आंख खोलने की प्रेरणा दे रहे हैं | बाहर की आंखों का उनके लिये कोई महत्व नहीं हैं । वहां महत्व प्रज्ञा का है, अगर प्रज्ञा सधी, परमात्मा सधा । घुघट उठा कि सत्य प्रगट हुआ - 'घूट के पट खोल, तुझे पिया मिलेगें ।'
परमात्मा तुममें है, मुझमें है, सबमें है । हम उसकी इकाई हैं । जैसे लड्डू में भी मिठास होती है, और बंदी में भी वैसे ही परमात्मा में भी मिठास है और आत्मा में भी । लड्डू ही बंदी है और बंदी ही लड्डू है | बीज में वृक्ष है और वृक्ष में बीज है । वैसे ही आत्मा परमात्मा में सम्बन्ध है । हम बूंद है, वह विराट है | बुद्धिमान वह है, जो बूंद में सागर को निहार लेता है, अनंत को पहचान लेता है । जिसने बूंद को जाना, उसने सागर को जाना | अणु में ही तो विराटता छिपी है । बूंदों का समूह सागर है और इसी सागर का नाम परमात्मा है । पिण्ड में ब्रह्माण्ड छिपा है ।
परमात्मा को पाने के बाद या उसकी अनुभूति करने के बाद हर कृत्य में परमात्मा प्रगट होता है | चाहे पत्तों की पाजेब हो या वीणा की झंकार | स्वर लहरी की अनुभूति तो हर जगह होगी । फिर जो कृत्य किये जाते हैं, वे सब परमात्म-पूजन के लिए होते हैं । वहां कबीर की झीनी-झीनी चादर भी, राम नाम के रस से भीनी-भीनी होती है । जो-जो कृत्य होंगे, सब परमात्मा के लिये- 'खाऊँ पीऊँ सो सेवा, उठु-बैह् सो परिक्रमा । वहां कपड़ा बुनना प्रार्थना है, पानी पीना भी सृष्टा मे लीन होने का प्रयास होता है, और भोजन ही भोग बन जाता है जो कुछ होता, सब कुछ परमात्मा के लिए।
आनंद की अनुभूति इसी परम दशा में है । ऐसी स्थिति आने पर हर खोज परमात्मा के सागर में होती है | यही जीवन का परम आनंद है । खिल उठोगे आनंद की घड़ी में, गुलाब के फूल की तरह ।
वे सभी लोग परमात्मा की खोज में लगे हैं, जो या तो धार्मिक हैं या स्वयं को धार्मिक समझते हैं | पर इस दुनिया में लाखों-करोड़ों में, एक व्यक्ति ही परमात्मा को उपलब्ध हो पाता है | लोग परमात्मा को ४०/ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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