SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है, वैसे ही परमात्म के चित्र को देख कर परमात्मा का बोध हो सकता है। जैसे बकरों के झंड में खोया सिंह किसी अन्य सिंह को देखकर सिंहत्व का बोध प्राप्त करता है वैसे ही साधक परमात्मा के दर्शन से. निज में छिपे हुए जिनत्व को पहचानता है । अजकुलगत केसरी लहे रे, निज पद सिंह निहाल । तिम प्रभु भक्ते भवि लहे रे, आतम शक्ति संभाल ।। कबीर अपनी साधुक्कड़ी भाषा में हठ-योग, मंत्र-योग, तंत्र-योग सबसे छुटकारा दिलाना चाह रहे हैं और आत्म-योग की प्रेरणा दे रहे हैं । महावीर का जोर आत्मदर्शन पर ही है । वे तो कहते हैं, जो स्व से अन्यत्र दृष्टि रखता है, वह संसार में जीता है और जो 'स्व' में दृष्टि रखता है, वह समाधि में जीता है । न कोई क्रिया कर्म में परमात्मा है, न योग-वैराग्य में । ये सब तो सतही साधन हैं, आत्मा में प्रवेश करने के । परमात्मा का स्वभाव 'होना है' | क्रिया-कर्म तो आडम्बर है | करना पत्तों की तरह निकलना है, होना जड़ की तरह है । एक अभ्यास है, दूसरा जीना है । एक पत्ता एक होता है, कभी उससे और पत्ते नहीं निकला करते । लेकिन एक जड़ से लाखों पत्ते निकला करते हैं । प्रेम, प्रेमी के मिलन से पूर्व भी होता है, लेकिन मिलन पर अभिव्यक्त हो जाता है | अगर अंतस् में प्रेम हो ही नहीं, तो मिलन पर अभिव्यक्त कैसे हो पायेगा । जैसे नल पानी के बाहर निकलने का साधन होता है, वैसे ही क्रियाकर्म है । टोंटी से सिर्फ जल निकल रहा है, आ तो बहुत भीतर से रहा है । क्रियाकर्म टोंटी है, अगर भीतर जल न हो तो टोंटी खोले बैठे रहो, एक बंद पानी न गिरेगा । अंतस् में है परमात्मा, इसीलिये उसकी कभी-कभी अभिव्यक्ति होती है । इसलिए तुम्हारे शैतान भी तुम हो, और तुम्हारे भगवान भी । अमृत भी तुम्ही हो और तुम्हारे जहर भी तुम्हीं । सुधरे तो अमृत, बिगड़े तो जहर, चढ़े तो स्वर्ग, गिरे तो नरक । परमात्मा तम्हारे पास है, तम्हारे भीतर है, सच तो यह है कि तुम ही परमात्मा हो । आखिर कहाँ है परमात्मा, आत्मा में ही परमात्मा है । इसे यों भी कह सकते हैं, आत्मा ही परमात्मा है । जो आत्मा, आत्मा में लीन है, परमात्मा : स्वभाव सिद्ध अधिकार/३५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003891
Book TitleJyoti Kalash Chalke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy