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को परमात्मा से कभी अलग नहीं किया जा सकता । दोनों एक साथ हैं। भला कपूर से खुशबू को कभी अलग निकालकर दिखालाया जा सकता है । जैसे तेल में तिल, दूध में मक्खन, घुले-मिले रहते हैं वैसे ही शरीर में आत्मा और परमात्मा रहते हैं । इसलिए महावीर ने परमात्मा के ध्यान की प्रेरणा कम दी, आत्म-ध्यान पर विशेष बल दिया। 'जो झायही अप्पाणम् परम समाहि हवे तस्स' जो आत्मा का ध्यान रखता है; क्योंकि आत्मा पर से मुक्त है । जहाँ स्व में वास होता है वहाँ समाधिः होती है | आत्मा. न शरीर है, न मन है, न वाणी है | जड़ पुद्गलों से भिन्न जो पदार्थ है, वह आत्मा है । इसलिए महावीर आज के सूत्र में उस तत्त्व को उजागर कर रहे हैं, जिसकी खोज में अब तक पता नहीं, कितने-कितने वेद, पुराण और आगम रचे गये हैं। महावीर का बहुत छोटा-सा सूत्र है यह सूत्र उन खोजियों के लिए है, जो आत्मा बनाम परमात्मा की खोज में लगे हैं | महावीर कहते हैं
वह आत्मा परमात्मा बन जाती है, जब वह कर्मों से छुटकारा पा जाती है।
साधकों के लिए यह बड़ा बहुमूल्य सूत्र है | महावीर इस सूत्र के माध्यम से यह सन्देश दे रहे हैं कि परमात्मा तुम स्वयं हो । आवश्यकता, मात्र आवरण को हटाने की है। आगे पर्दा लगा रहे पीछे माटक चलता रहे । पर्दे के पीछे होने वाले नाटक की पदध्वनि सुनाई दे सकती है, संवाद सुनाई दे सकते हैं, लेकिन दर्शन नहीं हो सकता | जैसे नाटक को देखने के लिए पर्दा हटाना आवश्यक है । वैसे ही आत्म-दर्शन, परमात्म-दर्शन के लिए कर्म आवरण को हटाना आवश्यक है |
मोको कहाँ ढूँढे बन्दे, मैं तो तेरे पास में । ना मैं बकरी, ना मैं भेड़ी, ना मैं छुरी गंडास में । नहीं खाल में, नहीं पोंछ में, न हड्डी न मांस में | न मैं देवता, न मैं मस्जिद, न काबा, कैलाश में । ना तो कोनो क्रिया कर्म में, नहीं जोग-बेराग में | खोजी होय तो तुरत में मिलियो पलभर की तलाश में । मैं तो रहों शहर के बाहर, मेरी पुरी मवास में | कहे 'कबीर' सुनो भई साधो, सब सांसों की सांस में ।
परमात्मा : स्वभाव सिद्ध अधिकार/३३
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