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का कभी वियोग नहीं हुआ, इसलिये योग भी कैसे होगा । इसलिए परमात्मा को खोजना नहीं है, मात्र बोध का रूपान्तरण करना है। सिर्फ अन्तर की आंख खोलकर स्थिति को देखना है, समझना है । यह दर्शन ही, समझ की क्रान्ति होगी ।
देखा और खोजा उसे जाता है, जो बाहर हो । जो बाहर है ही नहीं. उसे बाहर कैसे ढंढा जाये ? क्या आत्मा,आत्मा को ढंढेगी ? क्या व्यक्ति अपने आप पर शंका करेगा ? लोग आत्मा पर शंका करते हैं । हकीकत में तो जो शंका कर रहा है, वही आत्मा है । इससे अधिक हास्यास्पद क्या होगा कि 'आत्मा' अपने आप पर शंकास्पद है।
परमात्मा कहीं बाहर नहीं, हमारे भीतर है, हम स्वयं हैं, पर बाहर इसलिए ढूंढ रहे हैं, क्योंकि इन्द्रियां बाहर खुलती हैं | आंख दूसरे को देखती है, कान दूसरे को सुनते हैं, नाक दूसरे की गंध लेती है, सब कुछ बाहर से जुड़ा है, लेकिन अपने आप को ही भुला बैठे, तो बाहर क्या करोगे ? आंख सब कुछ देख लेती है, लेकिन अपने आप को नहीं देख पाती, कान सब कुछ सुन लेता है लेकिन अपनी, अन्तर् की आवाज अनसुनी रह जाती है। अगर परमात्मा को खोजना और पाना भी चाहते हो तो भीतर की यात्रा करनी होगी । इसमें आंख, कान, नाक, गला सहायक नहीं होंगे । यह यात्रा अतीन्द्रिय होती है । अन्तर् के तत्त्व का दर्शन कर पायेगी, अन्तर की आंख । जिसे शिव का तीसरा नेत्र कहा गया है, महावीर ने प्रज्ञा का नेत्र कहा ।
प्रकृति बाहर है, परमात्मा भीतर है । आखिर जो जहां होगा उसे वहीं तलाशा जायेगा । प्रकृति बाहर है, उसकी तलाश बाहर करो । परमात्मा भीतर है, उसे भीतर ढंढो । संसार बाहर है, उसे बाहर ढंढो। समाधि भीतर है, उसे भीतर देखो | लोग विपरीत चलते हैं, अन्तर में संसार को बसाते हैं, बाहर समाधि और सिद्धत्व खोजते हैं | जो जहां है उसे वहीं देखना चाहिये । सुई अगर कमरे में खोई है, तो वहीं मिलेगी चाहे वहां अंधेरा भी क्यों न हो । कमरे में खोई हुई सुई, कभी छत पर नहीं मिलेगी । उल्टी यात्रा करने से क्या फायदा, जाना है बम्बई और बैठ रहे हो 'कालका मेल' में, गतंव्य आखिर कैसे मिल पायेगा।
पर से जुड़ने के लिये आधार चाहिये । जैसे बिना इन्द्रियों के प्रकृति से सम्बन्ध नहीं जोड़ा जा सकता, वैसे ही इन्द्रियातीत हुए बिना परमात्मा से सम्बन्ध नहीं किया जा सकता । दूसरे से जुड़ने के लिये आधार
परमात्मा : स्वभाव सिद्ध अधिकार/२७
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