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भीतर अनर्गलताएँ रहेंगी, अशुभ का बसेरा रहेगा तब तक जीवन में आत्मिक प्रभात की सम्भावना बहुत कम रहेगी । श्री चन्द्रप्रभजी की एक चर्चित कविता है
तप रहा है, वह तपस्वी, . देख अलि ! उस वृक्ष नीचे ।
अस्थि पंजर हो गया, पर राग के आलाप खींचे ।। जिंदगी उसने लगायी, जिंदगी को साधने में । पूछना उससे मिला क्या यों स्वयं को मारने में ? सूख सकती अस्थियाँ पर सूख सकता अहं किसका । देह को जर्जर बनाना, धर्म कैसा देवता का ॥ रंग डाले वस्त्र गहरे, पर रंगा क्या हृदय तेरा। देखती हूँ वासना का आज भी उसमें बसेरा ।।
हो कहाँ से फिर सबेरा ।। जब तक हृदय में वासना है; किंतु व्यवहार में ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा, भीतर में राग-द्वेष की ग्रंथियाँ हैं और बाहर में उपवासों का सिलसिला, तब तक जीवन का बाह्याभयन्तर खुद एक विरोधाभास है | अध्यात्म हंस नीति में विश्वास रखता है । दूध का दूध और पानी का पानी । जिस दूधिये के पास पानी मिला दूध है वह बाजार में तो बिक सकता है, दूध की प्रतिष्ठा पा सकता है, लेकिन हंस के काम नहीं आ सकता। निर्वाण हमेशा हंसों को मिलता है, बगुलों को नहीं । अपने भीतर के हंस को जगाओ, बगुला नीति कारगर नहीं हो पायेगी । मुखौटे यहाँ
महावीर का मौलिक मार्ग/२१ For Personal & Private Use Only
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