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शिक्षा-दीक्षा दोनों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । मात्र विद्यालयीन शिक्षण को सम्यग्ज्ञान का दर्जा नहीं दिया जा सकता है, वहाँ तो जो कुछ रटा जायेगा बस मस्तिष्क में वही होगा ।
मैंने सुना है, एक छात्र किसी पुस्तक विक्रेता से 'रेपीडेक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स' खरीदने गया । पुस्तक दुकान में उपलब्ध नहीं थी, अतः विक्रेता ने कह दिया, 'आउट ऑफ स्टॉक ।' छात्र को यह वाक्य-विन्यास काफी सुहाया । उसने सोचा, मैं भी किसी अनुपलब्ध वस्तु के लिए यही कहूँगा।
एक दिन वह छात्र घर की सीढ़ियों पर बैठा था, किसी ने आकर पूछा-घर में डैडी हैं | छात्र ने वही रटा-रटाया जवाब दिया, 'आउट आफ स्टॉक ।'
यह आधा-अधूरा और अधकचरा ज्ञान है । ज्ञान हो सागर-सा गम्भीर परिपक्व ज्ञान की स्थिति के लिए ही तो श्रीकृष्ण ने कहा था 'ज्ञानाग्नि सर्व कर्माणि भस्मसात् कुरुतेर्जुनः ।'
महावीर जिस ज्ञान और चारित्र की चर्चा कर रहे हैं, उसका उद्देश्य जीवन की असलियत से पहचान कराना है । अगर मात्र भौतिक सुख-सुविधाएँ पाने के लिए ही हम डिग्रियों का भार ढोते रहे तो, ये डिग्रियाँ अंतत: हमारे लिए वैसे ही भारभूत होंगी, जैसे गधे के लिए चंदन का लादा । ज्ञान, न किताब है न कण्ठस्थ । ज्ञान तो जीवन है । जब जीवन में आत्मसात हो जाये ज्ञान, तो जो कुछ होगा, वह अपने अस्तित्व के लिए होगा। ___ मैंने जो चर्चा की है-दर्शन, ज्ञान और चारित्र की, यह महावीर का मूल मार्ग है । महावीर, इस साधना मार्ग को मोक्ष-मार्ग कहते हैं और मोक्ष इस मार्ग का मार्ग फल है । दर्शन का सम्बन्ध हृदय से है, ज्ञान का सम्बन्ध मस्तिष्क से है और चारित्र का सम्बन्ध हमारे आचार-व्यवहार से | एक बात बहुत साफ.कह देना चाहता हूँ कि यदि महावीर के मार्ग से, उनके मार्गफल को प्राप्त करना चाहते हो तो, यात्रा को क्रमश: पड़ाव देने होंगे । दर्शन इस यात्रा पथ का, पहला मील का पत्थर है, ज्ञान दूसरा और चारित्र तीसरा । जब तक जीवन में हृदय-शुद्धि नहीं, मानसिक पवित्रता नहीं तब तक आचार-व्यवहार में लाया गया संयम, हमें चारित्रिकता की प्रतिष्ठा जरूर दिला सकता है, किन्तु आत्मा में आध्यात्मिक परिणति नहीं आ पायेगी । जब तक हमारे २०/ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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