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है औरों में भी प्रकाश बाँटता है । वह ज्योतिष्मान् है जो प्रकाशित है, पर वह ज्योति धन्य है जो अनन्त में लीन होने से पूर्व अनेकों में ज्योति का संस्कार कर दे । ज्ञान आत्मसात् कर उसे औरों में बाँटे । बुझे हुए दीपक को धिक्कारने की बजाय, उसे प्रकाशित करने का प्रयास करना चाहिए । वह व्यक्ति प्राप्त विद्या को अक्षुण्ण नहीं रख पायेगा जो मात्र संचय में लगा है, यह तो बाँटने के लिए है | अमृत प्राप्त करना कठिन कार्य नहीं है । देव वह है जो अमृत बाँटता है, जिसने अमृत पाकर दुनिया में अमृत न बाँटा, वह भला कैसा देव ! उसके लिए तो अमृत भी पानी बन जाएगा । इस मामले में महावीर सदा उदार रहे । पर वे उन लोगों में से नहीं है जो मात्र ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे, आचरहिं ते नर न घनेरे' जैसी उक्ति को चरितार्थ करते हों । महावीर ने उपदेश तब दिया, जब सत्य उनके रोम-रोम में समा चुका था | एक बात गौरतलब है कि महावीर तब तक पूर्णतया मौन रहे, जब तक उन्होंने परमज्ञान हासिल नहीं कर लिया, लेकिन सत्य को जब सम्पूर्णतया जान लिया, तब वे औढरदानी हो गये । गाँव-गाँव और नगर-नगर में जाकर प्रेम और शांति के मार्ग को प्रशस्त किया। ___ ज्ञान, मात्र प्राप्त करने के लिए ही नहीं है, अपितु बाँटने के लिए भी है । ज्ञानी ही तो वह गुरु है जो औरों को दिशा निर्देश देता है | महावीर के सभी सूत्र तभी कहे गये हैं, जब उन्होंने परमज्ञान-दर्शन प्राप्त कर लिया था । इसलिए महावीर के सूत्र सत्य को प्रगट करने का प्रयास हैं, मंजिल के लिए संकेत हैं | महावीर की भाषा नकल की भाषा नहीं है, जो कुछ है, मौलिक है । ___ दर्शन-विशुद्धि के अभाव में प्राप्त ज्ञान और आचरण अनुसरणसा होगा । आचरण-शुद्धि जीवन की अनिवार्यता है, लेकिन वह बोधपूर्वक हो । बोध के अभाव में आचरण विशुद्धि के नाम पर मात्र तपस्याएँ होंगी, देह दण्डन होगा । बाहर से देह भले ही कंकाल हो जाये पर भीतर में वासना और तृष्णा वैसी की वैसी रहेगी । ज्ञान प्राप्त करने के लिए संकल्पवान होने से पूर्व आवश्यक है कि हम भीतर को निर्मल करें । यदि जहर सने घड़े में अमृत भी उंडेला जायेगा तो, जहर बन जाएगा। यदि हम.अमृतवाही बनना चाहते हैं तो, जहर से मुक्त होना होगा।
महावीर कह रहे हैं कि बिना दर्शन के ज्ञान नहीं होता, बिना ज्ञान
१८|ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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