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इसलिए महावीर ने दर्शन, ज्ञान और चारित्र का समवेत साधना मार्ग दिया । ज्ञान जीवन के अनुभवों का निचोड़ है । जैसे-जैसे अनुभव बढता है. वैसे-वैसे ज्ञान परिपक्व होता है । यह तो सुनी-सुनायी बात है कि अग्नि में हाथ डालने से हाथ जलता है । ज्ञान वह है, जब व्यक्ति वास्तविकता को स्वीकार करे । अग्नि में हाथ डालने से हाथ जलता है, यह तथ्य हमारे लिए सत्य तब होगा, जब हम स्वयं इसका अनुभव करेंगे। किसी बच्चे को दस दफा कह दिया जाये कि अग्नि को मत छूना, क्योंकि इससे हाथ जल जायेगा, संभव है वह विश्वास न करे । पर एक दफा उसे अग्नि का स्पर्श कराकर भान करा दिया जाये तो, वह बिना बताये ही समझ जायेगा कि अग्नि में हाथ डालने से हाथ जलता है।
जैसे-जैसे ज्ञान परिपक्व होता है, वैसे-वैसे चारित्र गुण सधता है | लालटेन पर भला कभी प्रकाश की चिप्पी चिपकानी पड़ती है । ज्ञान तो ज्योति है । मिटाओ, इससे अनाचरण के अंधकार को । गुजारो इसे अनुभव के दायरे से । न तो किताबें मोक्ष दे सकती हैं और न ज्ञान । ज्ञान पैदा करें अन्तर्मन से । किताबी ज्ञान तो केवल मानचित्र है। इससे यह तो ज्ञान हो जायेगा कि कहाँ हिमालय है और कहाँ रामेश्वरम्, पर हिमालयी बर्फीली हवाओं का आनंद और सागर की लहरों की खुशियाँ, किताबें नहीं दे सकतीं । ___महावीर, बुद्ध, ईसा, इन सबने ज्ञान किताबों से नहीं पाया, स्वयं से स्वयं का ज्ञान पाया । इसलिए वे अपने गुरु स्वयं बने । वे पंडित कम, प्रज्ञा पुरुष अधिक थे । पांडित्य तो हर किसी के पास हो सकता है, लेकिन प्रज्ञा हर किसी की नहीं सध सकती । पांडित्य अहंकार का पोषण करेगा, वहीं प्रकृष्ट प्रज्ञा ऋजुता को अपनायेगी। बाहर का ज्ञान तो उस झूठी मुस्कुराहट जैसा है. जो भीतर रोष होते हुए बाहर खुशी जाहिर करता है।
आज का सूत्र, उस रत्नत्रय को प्रस्तुत कर रहा है जिसे महावीर ने मोक्ष और निर्वाण का साधन माना है । यात्रा का प्रारम्भ श्रद्धा से हो रहा है और समापन निर्वाण की भूमि पर | जैसे सागर मंथन कर अमृत निकाला गया था, वैसे ही महावीर ने साधना-मार्ग का मंथन कर रत्नत्रय-दर्शन, ज्ञान, चारित्र निकाला है ।
ज्ञान वह ज्योति है, जिसे पाकर व्यक्ति स्वयं तो प्रकाशित होता ही
महावीर का मौलिक मार्ग/१७
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