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________________ नहीं, सत्य को ग्रहण किया जाना चाहिए | सत्य-स्वीकार ही सम्यक्त्व है। दर्शन, साधना-वृक्ष का बीज है | जैसा बीज होगा, वैसे ही पत्ते और फल-फूल होंगे | क्या वह वृक्ष कभी मधुर फलं दे पाएगा, जिसकी जड़ों में कड़वाहट हो ? जिसका उत्स ही अशुभ है, उसका समापन तो अशुभ होगा ही । शुभ परिणाम के लिए शुरुआत का शुभ होना जरूरी है । एक बात स्पष्ट है कि दूषित नजरें, दूसरों में सदा दोष ही ढूंढती हैं और पवित्र नजरें पवित्रता | बगीचे में एक साथ बैठे युवक-युवती किसी को भाई-बहिन नजर आते हैं, किसी को पति-पत्नी । वे कौन हैं यह बात गौण है | सवाल हमारी नजरों का है | लोगों की दृष्टि इतनी निम्नस्तरीय होती है कि किसी भली महिला को भी, कभी किसी के साथ देखकर उसके चारित्र पर प्रश्नचिह्न लगा देते हैं | कहते हैं ना कि गिद्ध आसमान में कितना भी ऊँचा क्यों न पहुँच जाये, वह धरती पर तो माँस ही ढूँढेगा | जैसी नजर होती है, नजारा वैसा ही नजर आता है। कोई मन्दिर में जाकर भी रूपसियों पर ताक-झाँक करता है और कोई बाजार में भी परमात्मा को ढूँढ लेता है | आखिर बिल्ली मन्दिर में जाकर भी तो चूहे ही खोजेगी । ऐसा ही हुआ । एक बिल्ली किसी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेकर वापस अपने देश पहुँची । पत्रकारों ने पूछा, सम्मेलन में क्या-क्या हुआ ? बिल्ली बोली, वहाँ चर्चाएँ, तो बहुत हुईं पर मैं कुछ सून न पायी । पत्रकारों ने कहा, जब सुना ही नहीं तो वहाँ जाने का मतलब क्या हुआ ? क्या आप उस समय सम्मेलन में नहीं थीं ? बिल्ली ने अपना सिर खुजलाते हुए कहा- थी तो सही पर मेरा ध्यान वहाँ की महारानी की कुर्सी के नीचे केन्द्रित था । पत्रकारों ने पूछा, क्यों ? क्या वहाँ सम्मेलन से ज्यादा महत्वपूर्ण चीज थी ? बिल्ली ने मुस्कुराते हुए कहा- जी ! वहाँ एक चूहा बैठा था। ___इसीलिए महावीर सम्यग-दृष्टि पर अधिक जोर देते हैं। आत्म-साधना के मार्ग में तो यह सर्वप्रथम आवश्यक है । सम्यग्-दर्शन चेतना में विहार है । पर से मुक्ति, स्व में संतुष्टि, इसी का नाम ही तो है सम्यग्-दृष्टि। ___महावीर जिसे सम्यग्-दर्शन कहते हैं, बुद्ध उसी को सम्यक् श्रद्धा कहते हैं और गीता के कृष्ण उसी को प्रणिपात कहते हैं । वैसे सम्यग्दर्शन १४/ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003891
Book TitleJyoti Kalash Chalke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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