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________________ हासिल कर सकता है, लेकिन दर्शन- भ्रष्ट व्यक्ति कभी सिद्धत्व हासिल नहीं कर सकता । महावीर मात्र व्यावहारिक सिद्धान्तों का ही प्ररूपण नहीं कर रहे हैं, उससे भी अधिक आत्मसिद्धान्तों की चर्चा कर रहे हैं । वे आजकल की तरह लीपा-पोती की भाषा प्रयुक्त नहीं कर रहे हैं । जो कुछ कह रहे हैं, जिस विषय में कह रहे हैं, तलस्पर्श करके कह रहे हैं । दुनिया की नजरों में वह व्यक्ति भ्रष्ट है, जो चारित्र से स्खलित हो गया है । लेकिन महावीर साधना-मार्ग के शिखर पुरुष हैं। वे बाह्य दृष्टि पर उतना ध्यान नहीं देते हैं । उनकी नजरों में वह व्यक्ति और अधिक पतित है जो दर्शन से स्खलित हो गया है । जैन-धर्म इस बात को खुल्लम-खुल्ला स्वीकार करता है कि सम्यगु-दृष्टि के अभाव में जो कुछ होगा, कर्म - बन्धन का कारण बनेगा। वहीं सम्यग्दृष्टि से मनुष्य द्वारा किया जाने वाला उपभोग, कर्म - निर्जरा में सहायक होगा । यही कारण है कि एक व्यक्ति किसी कर्म को करते-करते निर्लिप्त हो जाता है, वहीं दूसरा व्यक्ति उसी कर्म के सहारे नीचे धंसता जाता है । सम्यग्-दर्शन का सहारा देकर, महावीर हमें बैसाखी से मुक्ति दिला रहे हैं । किसी का सहारा लेकर चलना, जीवन की पंगुता है । अपनी आँखें खोलकर, मार्ग का निरीक्षण कर, चलना ही 'चलना' कहलायेगा, चर्या कहलाएगी । वैसे सत्य पथ तक पहुँचने के लिए अनुसरण किया जाना चाहिए, लेकिन अन्धानुसरण नहीं । अनुसरण के मार्ग में व्यक्ति आवश्यकता पड़ने पर अन्य मार्ग का चयन करने में स्वतंत्र रहता है, लेकिन अन्धानुकरण में किसी अन्य मार्ग की कल्पना भी नहीं कर पाता। सम्यक्त्व के अभाव में व्यक्ति बाहर से तो नग्न हो जाएगा, लेकिन भीतर अपने को आवरण में समेटे रखेगा । बाहर से भभूत रमा लेगा, लेकिन अन्तर में उस मार्ग के प्रति तिल भर भी श्रद्धा नहीं होगी । मन्दिर में जाने के बाद भी, मन के मन्दिर में कहीं परमात्मा की छाया तक नहीं होगी । शिवालय में जाकर वह घंटनाद भले ही कर ले, लेकिन स्वयं न शिव होगा, न जीवन में शिवत्व | सम्यग्- ग-दर्शन पहला कार्य तो यह करता है कि व्यक्ति को पूर्वाग्रह से मुक्त करता है। सुनी सुनायी बातें तो दूर, अगर कोई व्यक्ति शास्त्र का भी आग्रह करता है, तो वह सम्यग् दर्शन से दूर है। सत्य का आग्रह Jain Education International महावीर का मौलिक मार्ग / १३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003891
Book TitleJyoti Kalash Chalke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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