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ढूँढने जाएगा, तो एक भी नहीं मिलेगा और यदि युधिष्ठर दुर्जन ढूंढने जाएगा, तो उसे सम्पूर्ण विश्व में एक भी दुर्जन दिखाई नहीं देगा । जो जैसा स्वयं होगा, दुनिया को वह वैसा ही पाएगा।
आवश्यकता है सर्वप्रथम स्वयं को निर्मल करने की, अपनी नजरों को पवित्र करने की । स्वयं की पवित्रता ही अन्तर-अमृत को सुरक्षा प्रदान कर सकेगी। शुभ को आत्मसात् करने के लिए अशुभ से छुटकारा पाना होगा | विष के घड़े में डाला गया अमृत क्या अपने अस्तित्व को सुरक्षित रख पाएगा?
यह महावीर की विशेषता है कि वे अमृत उड़ेलने से पहले पात्र का प्रक्षालन कराते हैं, अन्यथा रद्दी की टोकरी में जो कुछ डाला जाएगा, रद्दी बन जाएगा । सम्यग्-दृष्टि के अभाव में ज्ञान प्राप्त कर व्यक्ति तर्क बुद्धि में तो पारंगत हो जाएगा, पंडित भी कहला लेगा, पर प्रज्ञा पुरुष नहीं हो पाएगा, जीवन मूल्यों एवं चैतन्य ऊर्ध्वारोहण के सन्दर्भ में पिछड़ा हुआ रह जाएगा।
साधना के मार्ग में दर्शन-विशुद्धि पर जितना जोर महावीर ने दिया, संभवतः उतना अभी तक कोई न दे पाया। कहीं ज्ञानवादी हए, कहीं क्रियावादी, पर महावीर तो इन वाद-विवादों से मुक्त हैं । वाद-विवाद वहाँ होता है, जहाँ व्यक्ति अपने सिद्धांतों को सच और दूसरों को झूठ मानता है । यहाँ तो सब कुछ स्वीकार है । सम्यग्-दृष्टि के लिए तो मिथ्या ग्रंथ भी सम्यग्-शास्त्र बन जाता है | उसके पास तो सम्यग-दर्शन की ऐसी फिल्टर मशीन है जो गन्दगी को अलग कर जल को स्वच्छ कर देती है। - सम्यग्-दर्शन के अभाव में, महावीर की दृष्टि में, ज्ञान और चारित्र की कोई विशेष कीमत नहीं है । सच तो यह है कि ज्ञान और चारित्र में प्राण, सम्यग-दर्शन के ही होते हैं । बिना प्राण की देह कैसी ! कंदकंद ने तो यहाँ तक कहा है___दंसण भट्ठा भट्ठा, दंसणभट्ठस्स णत्थि निव्वाणं । ... सिझंति चरियभट्ठा, दंसणभट्ठा ण सिझंति ।।
जो दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे भ्रष्ट हैं । दर्शन-भ्रष्ट व्यक्ति कभी निर्वाण को हासिल नहीं कर सकता । चारित्र रहित व्यक्ति फिर भी सिद्धत्व
१२/ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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