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________________ माँ हुआ जाता है और गोद लेकर माँ माना जाता है । ऐसे तो एक वन्ध्या भी माँ कहला सकती । लेकिन वह अपने भीतर के मातृत्व का, दूध घुला वात्सल्य पैदा नहीं कर सकती । वहाँ छाती का खून, दूध नहीं बन पाता। महावीर आज के सूत्र में यही सब कुछ बता रहे हैं | उनके मार्ग में बाह्य-आचरण और शास्त्र अभ्यास का मूल्य है, पर उससे भी ज्यादा शुद्ध श्रद्धा का मूल्य है, सम्यग्दर्शन का मूल्य है | सच तो यह है कि सम्यग्-दर्शन ही साधना का प्रथम चरण है और वही अन्तिम । बिना सम्यक्त्व के अनेक भवों में किया गया चारित्र का पालन भी सार्थक परिणाम नहीं दे पायेगा । महावीर कह रहे हैं 'दर्शन के अभाव में ज्ञान नहीं होता ।' ऐसा नहीं है कि महावीर यह बात केवल इस सूत्र या गाथा में कह रहे हों, हकीकत तो यह है कि महावीर की प्रत्येक गाथा या आगम सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए ही प्रेरित करते हैं । दर्शन-विशुद्धि के अभाव में की जाने वाली समस्त क्रियाएँ, अंधेरे में थेंगले लगाने के समान है | सम्यग्दर्शन का संदेश देकर महावीर सर्वप्रथम हमारी मानवीय दृष्टि को निर्मल करना चाहते हैं | जैसी नजरें होती हैं, नजारा वैसा ही नजर आता है | पवित्र निगाहें जहाँ सदा पवित्रता ढूँढती हैं, वहीं अपवित्र निगाहें सदा अपवित्रता | हंस-दृष्टि जिस पानी में मोती ढूँढता है उसी पानी में बगुला-दृष्टि मछली ढूँढता है । निगाहों का ही तो यह फर्क है कि एक ही व्यक्ति किसी को सज्जन प्रतीत होता है और किसी को दुर्जन | कोई महावीर में महावीरत्व, बुद्ध में बुद्धत्व और ईसा में ईश्वरत्व हुँढ लेता है, तो कोई उन्हीं में वह सब कुछ पाता है कि उनके कानों में कीलें गाड़ता है, वेश्याओं के साथ उनके नाम जोड़ता है, शूली पर लटकाता है | दृष्टि का ही तो यह फर्क है कि कोई राम में रमण करता है, कृष्ण का कीर्तन करता है तो कोई रावण.या कंस बनकर उन्हीं की शक्ति को ललकारता है । - गौतम और गौशालक दोनों ने महावीर का सामीप्य पाया, युधिष्ठिर और दुर्योधन दोनों ने कृष्ण का सान्निध्य पाया, लेकिन महावीर की महावीरता और वीतरागता को तथा कृष्ण के कर्मयोग को गौशालक और दुर्योधन नहीं पहचान पाये । यह पहचान तो गौतम और युधिष्ठिर जैसे लोगों के लिए ही संभव है। अगर दुर्योधन इस दुनिया में सज्जन महावीर का मौलिक मार्ग/११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003891
Book TitleJyoti Kalash Chalke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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