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कर बैठे । पहले पति-पत्नी, बच्चों पर क्रोध करते थे अब शिष्य-श्रावकों पर करने लगे । परिवर्तन कहाँ हुआ ! यह तो स्थानान्तरण हुआ | पात्र बदल गये पर रंग नहीं बदला । क्रोध, मान, माया, लोभ सब कुछ जीवित रह गये । दीक्षा महज वेश परिवर्तन नहीं है, अपितु जीवन परिवर्तन की वह साधना है जिसमें अशुभ विगलित होता है, शुभ की
ओर कदम बढ़ते हैं, जिसकी मंजिल शुद्धत्व है। ___दीक्षा को मात्र वेश-परिवर्तन तक ही सीमित न रखें । सर्वप्रथम दर्शन-विशुद्धि की दीक्षा होनी चाहिये फिर ज्ञान-शुद्धि तत्पश्चात् चारित्र-विशुद्धि की | सच में तो यही जीवन-विशुद्धि का राजमार्ग है । मनोदृष्टि की निर्मलता के अभाव में, हमारा ज्ञान हमें सही रास्ते पर अडिग नहीं रख पायेगा और बिना सही ज्ञान के हमारे आचार व्यवहार का कोई आदर्श नहीं होगा | हम अपना अन्तर सुधारें ताकि बाहर ऐसा कछ परिवर्तन हो जिसे हम जीवन कह सकें । दर्शन-शुद्धि के बाद ज्ञान की उपलब्धि ठीक वैसे ही है, जैसे नौ माह गर्भ का भार सहन करने के बाद पुत्र की उत्पत्ति । ___ एक बात और समझने जैसी है कि ज्ञान केवल सत्य का करना ही पर्याप्त नहीं है, असत्य का भी ज्ञान होना आवश्यक है | जब तक झूठ को झूठ रूप में नहीं जानेंगे, तब तक सच की सही पहचान नहीं हो पायेगी । ज्ञान आखिर ज्ञान है, चाहे असत्य का ज्ञान हो चाहे, सत्य का | अंधा व्यक्ति मात्र दूसरों को ही नहीं देख सकता, ऐसी बात नहीं है, वह अपने-आपको भी नहीं देख पाता है | अगर वह किसी अन्य सहारे से स्वयं का अनुभव भी करता है तो वह अपूर्ण माना जायेगा | ___ महावीर के अनुसार ज्ञान दर्शन के साथ हो । वे दोनों को आत्मसात् करने की प्रेरणा दे रहे हैं । उनके अनुसार बिना दर्शन के ज्ञान सम्यग् होना सम्भव नहीं है, 'ना दंसणिस्स नाणं'-दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता । जैसे बिना दो पहियों के गाड़ी नहीं चल सकती, बिना दो पटरी के रेल नहीं सरक सकती वैसे ही बिना दर्शन और ज्ञान के जीवन-विशुद्धि नहीं हो सकती। __ साधना के मार्ग में सर्वांगीण विकास के लिए बहुआयामी परिश्रम करना होता है | वह माँ भी, माँ कहलाती है जो नौ माह तक गर्भ का भार वहन करती है और वह औरत भी माँ कहलाती है जो किसी अन्य के जाये को अपना बेटा मानती है, पर इसमें फर्क है । बच्चा पैदा करके
१०/ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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