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________________ बात सच मानी जाती है और कानों से सुनी बात झूठी । इसलिए मुझसे अगर कोई किसी के बारे में कुछ कहे तो, मैं सबसे पहले यही पूछता हूँ–'क्या यह सब तुमने आँखों से देखा ?' अगर नहीं, तो सुनी-सुनायी . बातों पर शिकायत करना, कच्चे कान वालों की निशानी है । जो सुनी-सुनायी बातों पर विश्वास करते हैं, वे कानों से कच्चे हैं । ___ दर्शन से ज्ञान और चारित्र का प्रक्षालन होता है । एक ज्ञान किताबी होता है और एक अन्तर से निष्पन्न | दोनों में फर्क है। जो ज्ञान अन्तर से निष्पन्न होता है, वह जीवन का ज्ञान है । यह भीतर विराजे शिव के तीसरे नेत्र का उद्घाटन है। __ जैसे बच्चे के पैदा होने पर, दो अन्य चीजें भी पैदा होती है-'माँ' और 'दूध', वैसे ही दर्शन-विशुद्धि होने पर ज्ञान एवं चारित्र भी मुखर होता है | जब बच्चा पैदा होता है, तो मात्र अकेला बच्चा ही पैदा नहीं होता, स्वयं 'माँ' पैदा होती है और पैदा होता है माँ का दूध । वैसे होने में तो परखनली में बच्चा पैदा हो जाएगा, पर ऐसा करने से मातृत्वं पैदा नहीं होगा, छाती में दूध नहीं होगा । मातृत्व की अनुभूति ही सन्तान के जन्म का मुख्य गौरव है। ___ दर्शन के अभाव में प्राप्त ज्ञान और चारित्र परखनली में बच्चा पैदा करने के समान है । वहाँ मस्तिष्क में जानकारियाँ ढेर सारी होंगी. देखा-देखी आचरण भी होगा, लेकिन अन्तर्-दृष्टि नहीं खुल पाएगी, अन्तर्-जीवन में अध्यात्म की सुवास नहीं होगी। आज हम महावीर के साधना क्रम के ठीक विपरीत चल रहे हैं | सभी चारित्र अंगीकार करने पर जोर दे रहे हैं । शिष्यवृद्धि का लोभ संवरण न कर पाने के कारण प्रव्रज्याएँ तो बहुत हो जाती हैं, पर ऐसे लोग जीवन को आध्यात्मिक बनाने के नाम पर शून्य रह जाते हैं । महावीर दर्शन, ज्ञान और चारित्र का क्रम देते हैं | हमने इसके विपरीत मार्ग अपना लिया । पहले चारित्र, फिर ज्ञान, फिर कहीं दर्शन| परिणाम यह होता है कि दीक्षा के नाम पर वेश परिवर्तन हो जाता है, दो समय प्रतिक्रमण या संध्या-वंदन के पाठ बोल लिये जाते हैं, केश लुंचन और पद-विहार भी हो जाता है, लेकिन भीतर का जो परिवर्तन होना चाहिये, वह नहीं हो पाता । पहले पुत्र-पुत्री, पति-पत्नी, माता-पिता का मोह था अब गुरु और सम्प्रदाय का मोह हो गया । पहले धन-सम्पत्ति, पद-प्रतिष्ठा का अहंकार था अब जप-तप, पद-प्रतिष्ठा या चारित्र-पालन का अहंकार महावीर का मौलिक मार्ग/ ९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003891
Book TitleJyoti Kalash Chalke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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