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छात्र का ज्ञान तब तक अधूरा माना जाता है जब तक उस ज्ञान को व्यक्ति अनुभवों के साथ घटित न कर ले | इसलिए वहाँ कोई छात्र जब विद्यालयीय ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तब उसे यह सलाह दी जाती है; कि वह सुनी-सुनाई बातों का प्रत्यक्ष अनुभव करने के लिए, विश्व भर की यात्रा करे।
यह तो महावीर और बुद्ध भी प्रव्रजित होने से पूर्व जानते थे कि किसी को पीड़ा देना पाप है, झूठ बोलना पाप है, चोरी करना अपराध है और आवश्यकताओं से अधिक परिग्रह रखना अनुचित है । वे यह भी जानते थे कि दान और दया से पुण्य होता है | अंहिसा और करुणा से संसार में सुख का वातावरण फैलता है और प्यार व प्रेम से सामाजिक उच्छृखलता समाप्त होती है | पर जानने मात्र से पाप से निवृत्ति और पुण्य में प्रवृत्ति संभव नहीं होती । जीवन में मात्र सत्य का ज्ञान ही आवश्यक नहीं है अपितु ज्ञात सत्य का आचरण भी आवश्यक है । वह व्यक्ति अपने आपको सही सलामत कैसे रख पायेगा, जो यह जानते हुए भी अग्नि में हाथ जलाता है, कि अग्नि में हाथ डालने से हाथ जलता है । उसे सत्य का ज्ञान तो हो गया है लेकिन ज्ञान आचरण में रूपान्तरित नहीं हो पाया है । इसलिए यह मत कहना कि महावीर और बुद्ध ने सत्य को जानने के लिये संन्यास लिया था । हकीकत में ज्ञात सत्य को आचरण में उतारने के लिये, उन्होंने संन्यास लिया था ।
पहले ज्ञान और पीछे आचरण, 'पहलूं ज्ञान में पीछे क्रिया' | मैं इस सन्दर्भ में कुछ और बातें कहना चाहता हूँ । इन दोनों में कोई भी पहले पीछे नहीं हैं । ऐसा नहीं हैं की पहले शास्त्रों को पढ़ो फिर जीवन में उतारो । ऐसी बात होती तो विष्णु शर्मा कहा करते थे – 'अनन्त पारं किल शब्द शास्त्रं ।' शास्त्रों का कोई अन्त नहीं है और जितने शास्त्र पढ़ते जाओंगे, उतने ही संशय खड़े होते जायेंगे, अपने आप को तर्क बुद्धि से भर दोगे । मात्र शास्त्रों का पठन, तर्क-बुद्धि को परिपक्व कर देगा, पर जीवन संस्कार नहीं कर पायेगा | अगर यह सोचते रहोगे कि पहले शास्त्रों को पढ़ लँ फिर आचरण में उतारूंगा, तो दुनिया में शास्त्रों की कोई कमी नहीं है । एक जन्म नहीं, सात-सात जन्मों तक भी पढ़ते रहोगे, तो भी शास्त्रों का अन्त नहीं आयेगा । हमारे जीवन के जितने घन्टे शेष हैं, उससे भी कहीं अधिक संसार में शास्त्र हैं । इसलिये यह सोच कर स्वयं को आचरण-शून्य न करें कि पहले भलीभाँति शास्त्रों को पढ़ लूँ फिर जीवन में उतारूंगा ।
दीप बनें देहरी के| १४१
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