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ने दुनिया को मार्ग दिया; वह मार्ग जिस पर वे चल चुके थे. जिससे मंजिल हासिल कर चुके थे। उन्होंने अनुसरण और अनुकरण की भाषा नहीं कही, अपितु मात्र दिशा-निर्देश दिया और सभी को खोज करने की प्रेरणा और स्वतन्त्रता दी।
धार्मिक जगत् में व्यक्ति-व्यक्ति को स्वतन्त्रता देना महावीर का लक्ष्य था । उन्होंने इंसान को कभी ईश्वर की कठपुतली नहीं बनने दिया कि जैसे ईश्वर नचाता जाये वैले इन्सान नाचता जाये | महावीर ने सर्वप्रथम, व्यक्ति को साम्प्रदायिक कट्टरता से मुक्त करने की कोशिश की, क्योंकि सामग्रदायिकता में जकड़ा व्यक्ति सत्य की खोज नहीं करता, वह पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होता है । उसके लिए वह झूठ भी सच होता है, जो उसके सम्प्रदाय में मान्य हो । वह सत्य को ग्रहण नहीं करता, अपितु उस तथाकथित सत्य के लिए भी कदाग्रह करता है | 'अपना सच पराया झूठ' यः साम्प्रदायिक व्यामोह नहीं तो और क्या है ? ___ महावीर के अनुसार तो सत्य और धर्म हर स्थान पर है, हर मजहब में है । इसे किसी सम्प्रदाय विशेष की बपौती नहीं बनाया जा सकता । उनके अनुसार, तुम अपने धर्म का पालन करो और इसके लिए स्वतन्त्र भी हो, पर अपनी मान्यताओं को दूसरों पर थोपने का प्रयास क्यों करते हो? इसीलिए महावीर ने अपने शिष्यों को आदेश नहीं, उपदेश दिया। जैन आगम महावीर के आदेश नहीं हैं, उपदेश हैं । आदेश, दूसरों पर अपनी मान्यताओं का बलात् आरोपण है और उपदेश प्रेरणा है । माने न माने-सब कुछ सामने वाले पर निर्भर | आदेश अर्थात् करो और उपदेश अर्थात् करना चाहिए । उपदेश अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हुए दूसरे की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखना है, जबकि आदेश किसी की स्वतंत्रता का दमन है । शिष्य को उपदेश दिया जाता है और गुलाम को आदेश | इसलिए किसी उपदेष्टा को, गुरु या आचार्य को उपदेश देना चाहिए, आदेश की भाषा का उपयोग नहीं करना चाहिए। गुरु-शिष्य को उपदेश दे और गुरु का उपदेश ही शिष्य के लिए आदेश बन जाये | गुरु-शिष्य के सम्बन्ध को चिरस्थायी रखने का यह अचूक साधन है ।
मैं उपदेश देता हूँ, अधिक से अधिक स्वीकृति लेकिन आदेश नहीं । आदेश की भाषा में मुनि-जीवन की अनेक मर्यादाओं का अतिक्रमण सम्पद है।
महावीर का मौलिक मार्ग/ ५
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