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अभिनिष्क्रमण के पश्चात् मौन रखा । तब तक वे चुप्पी साधे रहे जब तक परम ज्ञान को आत्मसात् न कर लिया । प्रव्रजित होने के पश्चात् ऐसे अनेक अवसर आये जब महावीर को प्रवचन देना चाहिये था, पर महावीर ने मौन रखना उचित समझा ।
महावीर के अधर मौन हैं, पर स्वयं महावीर का जीवन मुखर है। शान्ति उनकी आभा है और वीतरागता उनका जीवन । चलते वक्त चरणों में स्वर्ण-कमलों का बिछना, स्वर्ण - रत्न के समवशरण रचना - ये सब तो भक्तों की भक्ति का अतिशय है । वस्तुतः महावीर निस्पृह हैं, वीतराग हैं । आत्मा ही उनकी सम्पदा है । परमात्मा ही उनका स्वरूप है, गुरु भी अपने वे ही हैं | उनका भगवान् भी उनमें ही साकार हुआ है । उनकी भगवत्ता फैली है चहुँ ओर, सब ओर । ज्योति कलश छलके ।
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महावीर के वचन कोरे अंधेरे में चलाये हुए तीर नहीं हैं । ये सब वे वचन हैं, जो सत्य के सान्निध्य में स्वर्ण - सूत्र बने हैं । महावीर का एक भी वक्तव्य, ऐसा प्राप्त नहीं होता है जो उन्होंने परमज्ञान को प्राप्त करने से पहले कहा हो । सत्य कहा जाना चाहिए, लेकिन सुनी-सुनायी बातों के आधार पर नहीं । वह सत्य सौ फीसदी प्रामाणिक कैसे हो सकता है जो अनुभव के दायरे से न गुजरा हो । इसीलिए राम का सत्य राम का है और कृष्ण का सत्य कृष्ण का; महावीर और बुद्ध का सत्यानुभव उनका अपना था । किसी ने किसी का अनुकरण नहीं किया। अनुभूति भी अपनी रही और अभिव्यक्ति भी अपनी । सब स्वतन्त्र अस्तित्व हैं और सबके अनुभव भी स्वतंत्र, अभिव्यक्ति की शैली भी
स्वतन्त्र |
महावीर ने बारह वर्ष तक साधना की - एकान्त, मौन और ध्यान तीनों से गुजरे। फिर जो जाना, उसे कहा । सच तो यह है कि इन बारह वर्षों की साधना का परिणाम ही आगम है । महावीर ऐसे सत्य को भी कभी अभिव्यक्त करना नहीं चाहते थे, जो अनुभव के गलियारों से न गुजरा हो । इसलिए महावीर की ये छोटी-छोटी प्यारी सी गाथाएँ सत्य, धर्म और साधना का सार है ।
अपनी वर्षों की साधना के पश्चात् महावीर ने सत्य की प्रभावना की, दुनिया में बाँटा । यदि सत्य को जानने के बाद भी दुनिया में न बाँटा गया, तो सत्य अपनी विराटता खो सकता है । इसलिए महावीर
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४ / ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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