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ऐसा ही हुआ कुछ लोगों ने मिलकर निर्णय किया कि नगर में धर्मशाला नहीं है; एक धर्मशाला बनाएंगे । उन्होंने एक संस्था बनाली। सारे शहर से चंदा एकत्रित किया, लेकिन दो लाख रुपये भी एकत्रित नहीं हो पाए । अंत में किसी ने सुझाव दिया कि शहर के आयकर आयुक्त को इस संस्था का अध्यक्ष बना लो फिर देखते हैं कि कौन दान नहीं देता। । ऐसा ही हुआ, आयकर आयुक्त अध्यक्ष बना दिए गए । लोग उन्हें साथ लेकर मुश्किल से २५-३० दुकानों में गये और धर्मशाला के लिए २० लाख एकत्रित हो गये ।
लोग दान के कारण दान नहीं देते, अपितु फंस जाने के कारण देते हैं। देने में, देने की भावना कम दूसरे की आँख के शर्म का प्रभाव ज्यादा हो जाता है | इसलिए भिखारी कभी एकांत में भीख नहीं मांगता, दस लोगों के बीच मांगता है, क्योंकि वह जानता है कि धनपति ५० पैसे के लिए लोगों के बीच स्वयं को कंजूस सिद्ध नहीं करेगा । धर्म-कर्म-दया-दान-सब कुछ तो आज दिखावे मात्र के लिए रह गए हैं।
यह हमारी विडम्बना है कि हम जीवन की वास्तविकता से हटकर दिखावेपन में ज्यादा विश्वास करने लगे हैं । दुनिया में जितने भी अत्याचार और अनाचार होते हैं, मूल कारण मनुष्य की वे दुष्प्रवृत्तियां हैं जिनके चलते वह ऐसा करने के लिए आकर्षित होता है । एक झोंपड़ी में रहने वाला व्यक्ति अपनी नजरें सदा उसी बंगले की ओर केन्द्रित रखता है जहाँ सुख -सुविधाओं का सैलाब उमड़ रहा है। वह देख रहा है कि उसके पैरों में एक फटी-पुरानी चप्पल भी नहीं हैं और पड़ोसी के बंगले के बाहर चार-चार कारें खड़ी हैं | उसे खाने के लिए दो जून रोटी भी नसीब में नहीं है, वहीं पड़ौसी के यहाँ रोज मिठाइयाँ खाई जा रही हैं । वह दिन भी उसे याद है जब उसकी बिटिया की शादी के लिए आए हुये बारातियों को मिठाई खिलाने के लिए उसने दो हजार रुपये अपनी पत्नी का मंगलसूत्र गिरवी रख कर पाये थे, वहीं पड़ोसी की बिटिया की शादी पर लाखों रुपये तो सिर्फ मौज-मस्ती और मदिरा पर ही उड़ा दिए गये थे । ऐसा सब कुछ होने पर व्यक्ति किसी अनुचित रीति से भी धनोपार्जन का उपाय करता है । जिन्हें हम सामाजिक बुराइयाँ कहते हैं वे सब इन्हीं रीति-नीति से पनपती हैं |
आज शादी-विवाह में अथवा पुत्र-पुत्री के जन्म-दिन पर जो किया जा
सत्य वाणी का, अंतर का/१२७
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