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बच्चों को क्या खिलायेंगे ।
सही में कलियुग है । नीचे से लेकर ऊपर तक झूठ ही झूठ समाई है। चाहे वक्ता हो या श्रोता-बातें ईमान की करेंगे और काम बेईमानी का । जिस मंच पर खड़े होकर अहिंसा का भाषण देंगे उसी के नीचे बम की फैक्टरियाँ चलायेंगे | यही जीवन का दोहरापन है | आज मानव मन की यही प्रवृत्ति है।
लोग कहते हैं, सत्य बहुत कड़वा होता है, हर कोई हजम नहीं कर पाता । मुझे यह बात नहीं जंचती अगर सत्य कड़वा होगा तो मधुर क्या होगा ? हमने अपनी कठोर वाणी से सत्य की दुर्दशा कर डाली । इस बात में भी असत्य का मिश्रण है कि हमसे झूठ सहन नहीं होता । अगर तुम सत्य सुनना चाहते हो, तो सत्य बोलना सीखो । सत्य सदैव मधुर होता है | बशर्ते अभिव्यक्त करने की शैली हमारे पास हो । व्यास कहा करते थे, 'सत्यं ब्रूयात, प्रियं ब्रूयातं', सत्य भी ऐसा बोलो जिसमें मधुरता का मिश्रण हो । सोचो, बोलने से पहले सोचो, तुम जिस पर सत्य की मोहर लगा रहे हो, क्या वह सत्य है ? सत्य मात्र वह नहीं हैं जो तुम कह रहे हो । सत्य की संभावना वहाँ भी है, जो तुम्हें कुछ कह रहा है | हम सत्याग्रही बनने के बजाय सत्यग्राही बनें । मैं कहता हूँ वह संत्य नही हैं, जो सत्य है वह मैं कहता हूँ | अपने क्रोध और अहंकार की तुष्टि के लिए कहा गया सत्य भी भला सत्य कैसे हो सकता है ? हम सत्य-भाषण नहीं करते हैं, अपने अहंकार का पोषण करते हैं। प्रत्येक सत्य को समझाया जा सकता है, बशर्ते हमारे पास समझाने की शैली हो ।
सत्य हमेशा सामने कहा जाता है। पीठ पीछे जो कहा जाता है, उसे मैं सत्य नहीं, निंदा कहता हूँ | सत्य और निंदा में फर्क है । हम लोग निंदा की भाषा तो जानते-समझते हैं, लेकिन सत्य की भाषा हमने नहीं सीखी । हमारी नाइन्साफी यह है कि जब तक सत्य से हमारे स्वार्थों की पूर्ति होती है, तब तक हम सत्य बोलते हैं । किन्तु सत्य से जब हमारे स्वार्थों की पूर्ति नहीं होती तब हम झूठ का सहारा लेना शुरू कर देते हैं । जीवन में कुछ नैतिक कर्तव्य होते हैं, उन्हें सफल करना हमारा दायित्व है । लेकिन अगर हम अहंकार की पुष्टि और स्वार्थ की पूर्ति के लिए, अपने नैतिक कर्तव्यों से पीछे खिसकते हैं, तो यह आत्म-प्रवंचना नहीं तो और क्या है ?
१२४/ ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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