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________________ सद्प्रवत्तियों को प्रवेश कराने के लिए प्रयास करना पड़ता है लेकिन असद् प्रवृत्तियाँ सहज में ही उत्पन्न हो जाती है । दुर्गंध सहज पैदा हो जाती है और सुगंध के लिए प्रयास करना पड़ता है । शायद दुनिया का कोई शास्त्र, या कोई चिन्तक यह नहीं कहता है कि झूठ बोलना चाहिए। बचपन से अब तक सैकड़ों किताबें पढ़ी होंगी । सभी में सच्चाई की बातें लिखी हैं, ईमान से जीने का आदेश दिया गया है, लेकिन हमारे व्यक्तित्त्व में किताबों की अच्छी बातें तो नहीं उतर पाई, हाँ झूठ और बेईमानी अवश्य हमारी पिछलग्गू है । हम पढ़ते तो अच्छी बातें हैं और कहते भी अच्छी बातें हैं लेकिन जीवन इसके विपरीत चलता है । ईमानदारी के लिए परिश्रम करना पड़ता है और बेईमानी बिना किसी प्रयास के आराम से कर लेते हैं । ___ कहने में भले ही कह दें कि हमें अहिंसा प्रिय है, अचौर्य प्रिय है, सत्य प्रिय है किन्तु यह वास्तविकता नहीं हैं | क्योंकि हमारी जीवन शैली और होती है, और अभिव्यक्ति की शैली और । उपदेश ऊंचाई का और आचरण नीचाई का | यदि मैं प्रवचन का विषय रखें कि 'सत्य कैसे बोलें' तो प्रवचन में गिने-चुने लोग आयेंगे किन्तु यदि मैं प्रवचन का विषय रखं 'झूठ बोलना, चोरी करना कैसे सीखें' तो यहाँ पैर रखने को जगह नहीं मिलेगी । 'आयकर कैसे चुकाएँ' अगर इस विषय पर संगोष्ठि आयोजित की जाए तो लोग गिने-चुने आयेंगे और 'आयकर कैसे बचाएं' इस विषय पर संगोष्ठी रखी जाए तो लोग उमड़ पड़ेंगे । जो लोग हरिश्चन्द्र की सत्य कथाएँ पढ़ते-सुनाते हैं उन लोगों को जरा पूछो कि तुम्हारे जीवन में सत्य कहीं आगे-पीछे भी है। __ ऐसा ही हुआ एक नगर में एक पंडित जी बाहर से कथा बांचने के लिए बुलाये गये । उन्होंने सत्यनारायण की कथा कहीं । हरिश्चन्द्र की कहानी को इतने मनोरंजक रूप में पेश किया कि सब लोग पंडित जी की जय-जयकार करने लगे। रवानगी से पूर्व उन्होंने व्यवस्थापकों से आने-जाने का प्रथम श्रेणी का किराया मांगा । उनका एक मित्र जो उनके साथ आया था, पंडित जी के द्वारा हरिश्चन्द्र की कथा सुनकर प्रभावित भी बहुत हुआ था। उसने पूछा-पंडित जी ! हम आये तो द्वितीय श्रेणी से हैं फिर किराया प्रथम श्रेणी का क्यों ? पंडित जी मुस्कुराये और कहने लगे, लगता है मेरी हरिश्चन्द्र की कथा का नशा तुम पर भी सवार हो गया । अरे ! ये कहानियाँ तो सतयुग की हैं, हम कलियुग में जी रहे हैं । अगर प्रथम श्रेणी का किराया न लिया तो हम सत्य वाणी. का, अंतर का/१२३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003891
Book TitleJyoti Kalash Chalke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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