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________________ ने, उसे मोह लिया । ऐसा नहीं है कि मछली को कांटा दिखाई नहीं दे रहा था । लेकिन कभी-कभी प्राणी जान-बूझकर भी फंस जाता है । हमारी प्रवृत्तियाँ भी तो ऐसी ही हैं। मछली आटे के कारण कांटे में फंसती है, हाथी कमल के लिए कीचड़ में धंसता है, पतंगा रोशनी से मोहित हो दीप में जलता है और मनुष्य कामेच्छा के कारण संसार में डुबकियाँ लगाता है। ___ काम-पूर्ति से कामेच्छा शांत हो जाती हो, ऐसा नहीं है । जैसे-जैसे कामनाओं की पूर्ति की जाती है वैसे-वैसे कामनाएं बढ़ती जाती हैं। खुजलाहट के समय तो मन को अच्छा लगता है, लेकिन तब सिवा पछतावे के कुछ हाथ नहीं लगता जब मवाद और खून रिसना शुरु हो जाता है । जैसे खुजली को खुजलाने से खुजलाहट और बढ़ती है वैसे ही काम-भोग की पूर्ति से उत्तेजना और अभिवर्द्धित होती है । काम-भोग से तप्ति जीवन में तब तक हासिल नहीं हो पाती जब तक आंखों की ज्योति नहीं चली जाती है, कमर नहीं झुक जाती । एक बीस-पच्चीस वर्ष का युवक अगर विवाह की तमन्ना रखे तो बात फबती है लेकिन दुनियाँ में उम्रदराज वृद्ध भी विवाह कर रहें हैं । पहले की तीन चली गई तो चौथा विवाह कर रहे हैं । पचास-साठ बसन्त बीत गये हैं, पर तृप्ति तो नजर भी नहीं आती । ___ मैं इरोड में था । होली के अगले दिन किसी महानुभाव ने अपने घर विशेष प्रवचन का आयोजन किया । प्रवचन के बाद एक मुनिजी ने उस महानुभाव से कहा, जो करीब पचास वर्ष के थे कि महीने में दस दिन तक ब्रह्मचर्य-पालन की प्रतिज्ञा ले लो । पत्नी भी पास खड़ी थी उसने हामी भर ली । लेकिन वे पचास वर्षीय महानुभाव पत्नी की और इशारा कर बोले, 'महाराज जी ! ब्रह्मचर्य की कसम इसी को दिला दो, मैं नहीं लेना चाहता ।' . लोग बचना चाहते हैं, यह सोचकर कि यहाँ नहीं तो कहीं और तृप्ति पा लेंगें । लेकिन वहाँ भी तृप्ति कहाँ सम्भव है ? क्षणिक आनंद की अनुभूति हो सकती है, पर यह सब कुछ मानने भर को होता है | कामेच्छा की तृप्ति में आनंद की अनुभूति ठीक वैसे ही होती है जैसे कुत्ते को हड्डी चूसने में । हड्डी चबाने वाला कुत्ता सोचता है खून हड्डी में से आ रहा है । हकीकत में खून हड्डी में से नहीं, उसकी जीभ से आ रहा है और कुत्ता सोचता है हड्डी में आनंद आ रहा है । अनासक्तिः संसार में संन्यास/१०५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003891
Book TitleJyoti Kalash Chalke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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