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________________ इस संसार में और सांसारिक भोगों में कहीं सार नहीं है । जितना भोगेगे तृष्णा उतनी ही बलवती होगी । घी डालकर आग बुझाना बेवकूफी नहीं तो और क्या है ? इन सबमें न आनंद है, न तृप्ति, मात्र सम्मोहन है । आज अफसोस होता है, कल फिर उत्तेजना होगी । कल फिर अफसोस होगा, परसों फिर उत्तेजना जगेगी । यह अफसोस और उत्तेजना तो बारी-बारी चलती रहेगी | चाहे जितने गहरे उतर जाना संसार में, अन्त में व्यर्थता ही हाथ लगेगी । __ भोग में आनंद की खोज प्याज के छिलके उतारकर प्याज का अस्तित्व ढूंढ़ना है | प्याज को ढूंढने के लिए एक-एक छिलके उतारते रहोगे, अन्त में सिवा खोखलेपन के क्या हाथ लगेगा ? प्याज का अस्तित्व छिलकों के सहारे है और भोग का अस्तित्व सम्मोहन के सहारे । जैसे-जैसे सम्मोहन टूटता जायेगा वैसे-वैसे उसके प्रति होने वाली आसक्ति भी कम होती जाएगी। महावीर कहते हैं काम-गुणों में आसक्ति । महावीर अनासक्त बनाने के लिए आसक्ति से भी नजर मुहैय्या करा रहे हैं | सत् को समझने के लिए आवश्यक है पहले, असत् को समझा जाये । महावीर पहले पहचान कराते हैं फिर छुटकारा दिलाते हैं । अगर आसक्ति छूटी तो सैक्स के प्रति अपने आप उदासीन वृत्ति पैदा हो जाएगी। काम-भोगों की आसक्ति से छुटकारा परिवार नियोजन की पारम्परिक शैली है । महावीर इसे पारिवारिक एवं सामाजिक दृष्टि से अनिवार्य भी मानते हैं | इसलिए महावीर ने अणुव्रत में ब्रह्मचर्य को स्वतंत्र रूप से स्वीकार किया । महावीर से पूर्व तीर्थंकर पार्व ने ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह के अन्तर्गत ही स्वीकार कर लिया था, लेकिन महावीर ने इस व्रत को समाज एवं देश में व्यापक रूप में फैलाने के लिए, इसे अधिक महिमा मंडित किया ताकि न केवल आसक्ति के तार ढीले पड़ें, अपितु जनसंख्या वृद्धि पर भी रोकथाम हो सके | महावीर ने सब व्रतों में ब्रह्मचर्य को दुष्कर और श्रेयस्कर स्वीकार किया । देव-दाणव-गंधव्वा, जक्खरक्खस्स किन्नरा । बम्भयारिं नमसंति, दुक्करं जे करंति तं । उस ब्रह्मचारी को देव-दानव-गंधर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर- ये सभी प्रणाम करते हैं, जो दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करता है । १०६/ ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003891
Book TitleJyoti Kalash Chalke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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