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गोरख कहते हैं 'छांडो काम'. जिसने काम छोड़ दिया उसने सब कुछ छोड़ दिया । और कुछ छोड़ने को शेष रहा ही नहीं | काम छूटा यानि दूसरे की जरूरत छूटी। कामविजेता से क्रोध अपने आप छूट जाता है। काम भी मन का एक संवेग है और क्रोध भी । जैसे ही संवेग समाप्त होंगे, ये सब पीछे छूट जाएंगे । जहाँ काम नहीं वहाँ क्रोध नहीं | अगर किसी साधु को भी क्रोध में लाल-पीला देख लो, तो निष्कर्ष निकाल लेना कि जरूर इसके मन में कामनाएं दबी हुई हैं । जब-जब कामना-पूर्ति में रुकावट आती है, क्रोध आता है । जिसकी कामनाएं समाप्त हो गयीं उसे क्रोधित करना चाहेंगे, तब भी वह क्रोधित न हो पाएगा । उसके जीवन में चाहे जितनी बाधाएं डालें, उसे बाधा दिखायी भी न देगी।
इसलिए दुनिया में देखा, प्रेमी एक-दूजे से प्रेम भी करते हैं और झगड़े भी । बिना विवाह के आज तक किसी के साथ तलाक जैसे किस्से हुए हैं ? खींचतान वहीं होती है जहाँ प्रेम होता है | आखिर ऐसी फजीहत क्यों होती है ? मनोवैज्ञानिकों ने इस सम्बन्ध में खोज की है | उनकी खोज का सार है कि जैसे ही हम किसी के प्रेम में पड़ते हैं, एक बात समझ में आनी शुरु हो जाती है कि हमारा सुख दूसरे पर निर्भर है । यह निर्भरता ही कष्ट देती है, कि दूसरे के हाथ हमारे सुख की चाबी चली गई । जब-जब अपेक्षा उपेक्षा का रूप धारण कर लेती है, तब-तब क्रोध पैदा होता है । जिससे हमारा सम्बन्ध है पता नहीं वह कब सुख देगा । सुख वह जब देगा तब देगा, पर मालकियत खो गयी, गुलामी हावी गयी । गुलामी से विद्रोह की भावना भड़कती है, विद्रोह से क्रोध-वैमनस्य होता है, उससे फिर संघर्ष की शुरुआत होती है । ___ काम-क्रोध दोनों साथ-साथ चलते हैं । इन दोनों के बीच अहंकार खड़ा होता है । जिसकी न कोई कामना,न कोई क्रोध है उसका अहंकार अपने आप विलीन हो जाता है । अहंकार के पंछी को उड़ान भरने में, काम और क्रोध इन दो पंखों से ही सहायता मिलती है ।
हमें इन दोनों पंखों को गिराना हैं, जिनसे अब तक इस पंछी ने मात्र संसार की ही यात्रा की है। यह प्रश्न बेबुनियादी है कि बाहर की यात्रा से कुछ हासिल होता है या नहीं ? हर इंसान इसका अनुभवी है कि बाहर की यात्रा से सिवा निराशा, कुंठा और वितृष्णा के कुछ नहीं मिलता है । जितनी कामना करोगे, माँगोगे, उतने ही परेशानी को पास पाओगे । यहाँ सब कुछ उलटा हाथ लगेगा । खोजोगे सुख, हाथ लगेगा
अनासक्तिः संसार में संन्यास/१०३
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