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धर्म के सिद्धान्तों को जानते हैं, लेकिन जानते हुए भी अपना नहीं पाते। दुर्योधन बहुधा कहा करता था, 'जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति, जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः ।' मैं धर्म को जानता हूँ लेकिन मेरी उसमें प्रवृति नहीं हो सकती । मैं अधर्म को भी जानता हूँ लेकिन उससे भी निवृत्ति मेरे हाथ की बात नहीं है। यह उस व्यक्ति की अन्तर्व्यथा है जो मुक्त गगन को देखकर भी पिंजरे में फंसा है । ऐसा नहीं है कि व्यक्ति पाप और पुण्य से अनभिज्ञ हो । शक्कर और धूल दोनों का भेद व्यक्ति जानता है , धर्म-अधर्म दोनों को देखता है, लेकिन सांसारिक रसों में आसक्ति उसे श्रेय की ओर दो कदम भी नहीं बढ़ाने देती । गोरख कहा करते थे, 'पहले आरंभ छांडो, काम, क्रोध, अहंकार।' अगर आरंभ करनी है अध्यात्म की यात्रा, तो छोड़ना होगा सबसे पहले काम, क्रोध, और अहंकार को । काम का अर्थ होता है- चाह, इच्छा । चाह सदा दूसरे की होती है, दूसरे से होती है | वहाँ काम और अधिक मजबूत हो जाता है, जहाँ दूसरे के बिना हमारा काम नहीं चलता । विपरीत की चाहना हमारा स्वभाव है । इसी का परिणाम है कि पुरुष स्त्रियों के पीछे दौड़ता है और स्त्रियाँ पुरुषों के पीछे । ___ गोरख क्रोध, काम और अहंकार को एक ही मंच पर खड़ा कर रहे हैं । तीनों एक दूजे से जुड़े हैं । क्रोध और अहंकार का तो चोली-दामन का रिश्ता है । ये दोनों ही व्यक्तित्व-विकास के मार्ग में कांटें बिखेरते हैं । लड़ाई-झगड़ा करना कोई रोग नहीं है बल्कि व्यक्ति क्रोध और
अहंकार के कारण ही ऐसा करता है । जीवन में ऊंचाईयों को छूने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति क्रोध और अहंकार का पूर्ण त्याग कर दे। इससे व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक और आर्थिक हानि उठानी पड़ती है।
क्रोध, व्यक्ति को मानसिक रोगी बनाता है | क्रोध का सीधा प्रभाव स्नायविक संस्थान पर होता है और स्नायु मंडल पर पुनः पुनः झटका लगने से व्यक्ति मानसिक रूप से रुग्ण हो जाता है । परिणाम स्वरूप क्रोधी व्यक्ति की स्मृति कमजोर हो जाती है, बात-बात में झुंझलाहट होती है, और तो और इसका परिणाम पागलपन में भी परिवर्तित हो सकता है | जब क्रोध अपने पूर्ण वेग में होता है तो मनुष्य का रक्त भी जहरीला हो जाता है । वैज्ञानिक अनुसंधान के अनुसार, ऐसी दशा में एक पाउंड खून जलकर समाप्त हो सकता है।
१०२/ ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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