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एक भिखारी ऐसी ही किसी दुकान में बैठा भीख माँग रहा था । एक व्यक्ति उधर से गुजरा और भिखारी कातर स्वर में बोला, 'भैया! कुछ पैसे दे दो, सिनेमा देख आऊंगा । वहीं उसके पास - तख्ती लगी थी कि 'मैं अंधा हूँ ।'
उस व्यक्ति ने भिखारी से कहा, 'तुम अंधे हो फिर सिनेमा कैसे देखोगे ? '
भिखारी ने कहा, 'नहीं जनाब ! मैं अंधा नहीं हूँ । असल में यह दुकान दूसरे भिखारी की है, वह आज छुट्टी पर है । मैं तो लंगड़ा हूं, परं दुकान मौके की है । जब वह छुट्टी पर होता है तो मुझे बिठा देता है ।'
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भिखारियों की इन बातों से हमें हँसी आ रही है । पर हमारी हालत तो और भी अधिक हास्यास्पद है । भिखारी का किसी स्थान के प्रति ममत्व का, अधिकार का भाव तो वर्षो में पनपा है, लेकिन हम हमारे अधिकार भाव को देखें । दिल्ली से आगरा के लिए 'ताज' में बैठते हैं, 1 मात्र तीन घंटे की सफर, लेकिन हमारे द्वारा आरक्षित सीट पर अगर कोई दूसरा वृद्ध भी बैठ जाता है तो हम उससे तत्काल कह देते हैं, 'भाई साहब ! उठिये ।' वह कहता है, 'क्यों ?' हम कह देते हैं, 'यह सीट मेरी है ।'
मात्र तीन घंटे के लिए आरक्षित सीट के प्रति भी हमारा कितना जबरदस्त अधिकार भाव ! लोग इस सीट के लिए 'तू-तू, मैं-मैं' पर उतारू हो जाते हैं । इस रागात्मक वृत्ति को ही महावीर मूर्च्छा कहते हैं, शंकर माया कहते हैं और पतंजलि बेहोशी कहते हैं ।
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संसार में रहना हमारा धर्म है, क्योंकि संसार में ही हमारा पुष्प पल्लवित हुआ है, खिला है । जो भोग में जी रहा है, वह भी संसार में है और जो योग में जी रहा है वह भी । लेकिन योगी नाम भर को संसार में हैं और भोगी न केवल स्वयं संसार में है, अपितु अपने भीतर भी संसार को बसाये है ।
संसार और संन्यास का भेद कीड़े और कमल से समझे । कीचड़ में कमल भी पैदा होता है और कीड़ा भी । लेकिन एक, जैसे-जैसे अपने 1 अस्तित्व को आत्मसात् करता है, वैसे-वैसे कीचड़ में धँसता जाता है वहीं दूसरा, इसके विपरित अपने अस्तित्व को आत्मसात् करते ही कीचड़
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अनासक्तिः संसार में संन्यास / ९९
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