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से उपरत हो जाता है। कीड़ा कीचड़ में धंसता है और कमल कीचड़ से बाहर आ जाता है । कमल का जीवन श्रमण का जीवन है, एक संन्यासी - साधक का जीवन है ।
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महावीर आज के सूत्र में कीचड़ से बाहर निकलने के संकेत दे रहे हैं । वे मनुष्य को दलदल से बाहर निकालना चाहते हैं और अस्तित्व की पहचान कराना चाहते हैं । इसलिए महावीर के सूत्र - सन्देश जीवन, जगत् और अध्यात्म तीनों से जुड़े हैं । महावीर जगत् की पहचान करवाकर, जीवन को अंधे - अभिशप्त गलियारों से बाहर निकालना चाहते हैं । वे मनुष्य को अध्यात्म के उस सन्देश का मालिक बनाना चाहते हैं, जिसका मार्ग न केवल निष्कंटक है, अपितु प्रशस्त है ।
महावीर केवल आँखे मूंदकर बैठने की प्रेरणा नहीं दे रहे हैं । वे साक्षात्कार करा हैं रहे मनुष्य को उस तत्त्व से जो अदृश्य है, अस्पृश्य है। आत्मा को भला कभी देखा-दिखाया जा सकता है, जलाया - मिटाया जा सकता है । न इस तत्त्व की व्याख्या की जा सकती है, न उपदेश दिये जा सकते हैं । दर्शन का भला कैसा प्रदर्शन ! आत्मा का मात्र अनुभव किया जा सकता है, जीया जा सकता है ।
महावीर की भाषा बोध की भाषा है । वे जीवन को कीचड़ से उपरत I करना चाहते हैं । अभिशप्त जिंदगी को वरदान रूप में परिवर्तित करना 1 चाहते हैं । वे व्यक्ति को ऐसे किसी दल में नहीं रखना चाहते जो दल-दल में ले जाये ।
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न पक्ष, न विपक्ष, महावीर निष्पक्ष की बातें बता रहे हैं । वे दुनिया के सामने एक चिकित्सक बनकर पेश आ रहे हैं, ताकि रोगी को रोग का बोध कराया जा सके । महावीर उस रोग का बोध कराना चाहते हैं जिसके कारण व्यक्ति पीड़ित है, व्यथित है, व्याकुल है 1
ज्ञानियों की यह खासियत होती है; वे रोगी को सीधे दवा नहीं देते हैं, पहले रोग की पहचान, फिर निदान | महावीर पहले रोग का बोध कराते हैं, फिर दवा देते हैं, पहले प्यास जगातें हैं, फिर पानी पिलाते हैं ।
महावीर 'मैं' का बोध भी कराना चाहते हैं और 'मैं' से छुटकारा भी दिलाना चाहते हैं । 'मैं' जो अहंकार के अर्थ में प्रयुक्त है, उसके गिरते ही, वह 'मैं' प्रकट हो जाता है जिसे हम आत्मा कहते हैं । अहम्
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१०० / ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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