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तुम्हारे रात रुकने की व्यवस्था हो सकती है, नगर की किसी धर्मशाला
में ।।
फकीर के कहा-'राजन् ! जिसे तुम अपना महल मानते हो यह महल नहीं सरायखाना है, धर्मशाला है । मैं जब साठ वर्ष पूर्व यहाँ आया था, तब तुम्हारे परदादा यहाँ रह रहे थे, वे अब कहाँ गये ?'
सम्राट ने कहा, 'वे नहीं रहे ।' 'तुम्हारे दादा ?' 'वे भी चले गये। 'तुम्हारे पिता ?' 'वे भी चले गये ।'
फकीर ने हँसते हुए कहा, 'सम्राट् ! इसी तरह तुम भी चले जाओगे, कभी तुम्हारा पुत्र भी चला जाएगा । कोइ आज जा रहा है, कोई कल जाने वाला, दुनिया है धर्मशाला । जब तुम्हारे परदादा, दादा, पिता सब जिसे छोड़कर चले गये, क्या तुम वहाँ शाश्वत रह पाओगे । सम्राट् ! बोलो मैं इसे सरायखाना न कहूँ, तो और क्या कहूँ !'
महल तब तक महल है, जब तक हमारा उसके साथ संबंध है । उस दिन ये महल, मकान, बंगला सब धर्मशाला का रूप धारण कर लेगें, जिस दिन हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाएगा । ___ संसार का अस्तित्व हमारे लिए तभी तक है, जब तक हमारा अस्तित्व है। दुकान, मकान सब यहीं धरे रह जाते हैं | पत्नी चौखट तक पहुँचा पाती है और परिजन श्मशान घाट तक साथ निभाते हैं, जब हँसा उड़ जाता है | इसलिए कीमत संसार की मत आंकना, आत्मा की आंकना, जड़ से ऊपर उठकर चेतना की आंकना । सांसारिक सुखों की आसक्ति कभी भी सत्य तक नहीं पहुँचा सकती।
आसक्ति के भी कई दायरे हैं । व्यक्ति का मन मात्र मकान, दुकान, पुत्र-परिवार या धन-सम्पत्ति के प्रति ही आसक्त नहीं होता, अपितु देव,गुरु और धर्म का भी सम्मोहन उसे घेर लेता है । मन्दिर और मस्जिद से भी राग और द्वेष के सम्बन्ध जुड़ जाते हैं | धार्मिकता मुँह के बल गिर जाती है और साम्प्रदायिकता सिरमौर हो जाती है । अपने गुरु को सुगुरु, अपने धर्म को सुधर्म, अपने देव को सुदेव और प्रत्येक
अनासक्तिः संसार में संन्यास/९७
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