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दल-दल में हाथी और बेहोशी में मनुष्य, हाथी कीचड़ में है और मनुष्य संसार में है । लेकिन तट को देखते हुए भी निकलना दोनों के लिए दुष्कर-सा हो गया है । जन्म से मृत्यु तक संसार का ऐसा गुरुत्वाकर्षण चलता है कि व्यक्ति देख तो रहा है समाधि की राहों को, लेकिन संसार का गुरुत्वाकर्षण उसे अपनी ओर खींच लेता है।
महावीर इसी आसक्ति से छुटकारा दिलाना चाह रहे हैं । उनके अनुसार जीवन की ध्रुवता चैतन्य में है, लेकिन व्यक्ति अध्रुव और अशाश्वत संसार में ही अपने को रचा-पचा लेता है । शरीर माटी का, मकान माटी का, सोना-सम्पत्ति सब कुछ माटी के हैं, पर आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि चेतना भी माटी में रच-बस जाती है, उसका मेरापन माटी के साथ ही जुड़ जाता है । यो एक अनश्वर नश्वर में विलीन हो जाता है।
दुनिया के जितने भी दुःख हैं, अस्तित्व से एक भी दुःख व्यक्ति को प्राप्त नहीं होता है । सारे दुःख ममत्व बुद्धि से पैदा होते हैं । दुःख हमेशा उसी द्वार से आता है जिससे सुख आता है । व्यक्ति की आसक्ति का खूटा इतना गहरा गड़ जाता है कि उसका 'मैं' का संबंध भी जड़ के साथ जुड़ जाता है | काश ! व्यक्ति 'मैं' में भी आत्मा को निहार पाता और 'मेरे' में भी। __ मकान व्यक्ति से कभी नहीं कहता कि तुम मेरे मालिक हो । व्यक्ति स्वयं गौरव के साथ कहता है, 'मैं मकान-मालिक हूँ।' क्या कभी किसी कल कारखाने ने कहा कि मेरा मालिक कौन है ? व्यक्ति सदैव अपनी मालकियत का बोर्ड लगाता है और सांसारिकता में स्वयं घिर जाता है। जिस मकान को बनाने, सजाने, संवारने में व्यक्ति अपनी सारी जिन्दगी पूरी कर देता है, वही मकान उसके लिए तब सरायखाना बन जाता है जब उसे संसार से अलविदाई मिल जाती है । ___ कहते हैं सम्राट् इब्राहीम के महल में एक फकीर पहुंचा । द्वारपाल से कहा- 'मैं आज महल में विश्राम करना चाहता हूँ ।'
द्वारपाल ने कहा- 'फकीर ! यह राजा का महल है, सरायखाना नहीं।'
फकीर सम्राट से मिला, पर सम्राट ने भी फकीर से यही कहा-'यह महल है, मेरा निवास स्थान है, सरायखाना नहीं है । अगर चाहो तो
९६/ ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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