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है । जब जाल बनाया जाता है तब जीवन का एक लम्बा भाग रेशे से रेशे को जोड़ने में बीत जाता है | भूख-प्यास की चिन्ता नहीं, सर्दी-गर्मी की परवाह नहीं, धन की धनी मकड़ी हँसते-हँसते जाल बनाती है और उस जाल में फंसकर रोते-रोते जिन्दगी पूरी करती है ।
मकड़ी जाल बुनती है। तुम भी जाला बुनते हो । जाले इसलिए हैं, कि वे बुने जाते हैं। मकड़ी के द्वारा तुम्हारे, मेरे या हम सब के द्वारा। मकड़ी, हम सब, इसलिए हैं कि अपने-अपने जालों में या एक-दूसरे के बुने जालों में फँसे हैं। हम सब जाल बुनते हैं तब चुप-चुप रहते हैं लेकिन जब उनमें फँसते हैं
तब बहुत शोर करते हैं। यहाँ संसार में जिस-जिसने जाल बुना है, अवश्य फंसा है | चना न खाने वाला, न खाकर पछताया है या नहीं पछताया, पर जिसने खाया है वह तो पछता ही रहा है। मनुष्य की आसक्ति का मकड़-जाल मकड़ी से भी बदतर है । मकड़ी केवल एक जाल बुनती, बनाती है लेकिन मनुष्य न जाने कितने मकड़-जाल बुनता-बनाता है । जड़ से जड़ को सजाया जाता है और चेतना प्रफुल्लित होती है । पुद्गल से पुद्गल को सजाने-संवारने में चेतना की आसक्ति/मूर्छा, इसी का नाम मिथ्यात्व है । यह आत्मा की वह दशा है जब चैतन्य से सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है, सारा सम्बन्ध जड़ के साथ, पुद्गल के साथ, भौतिक पदार्थों के साथ ही हो जाता है | इस गिला भरी जिंदगी में व्यक्ति आवश्यकताओं की ९२/ ज्योति कलश छलके : ललितप्रभ
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