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________________ भगवान महावीर ने आसक्ति को ही लोक कहा है । आचारांग के पहले अध्याय में कहा है, 'इच्चत्थं गड्ढिए लोए' आसक्ति ही लोक है। जो आसक्त है, वह संसारी है | जो अनासक्त है, वह परीत संसारी है। आसक्ति का दायरा जितना विस्तृत होगा, संसार और बन्धन उतना ही प्रगाढ़ कहलाएगा । आसक्ति का अर्थ है- मूर्छा । इसे हम सम्मोहन भी कह सकते हैं | मेरा भाई, मेरी पत्नी, मेरी माँ, मेरी दुकान, मेरा घर-'यह मेरा' ही आसक्ति है । परिजनों के बीच रहना-जीना, कपड़े पहनना या भोजन करना आसक्ति की मुहर लगाना नहीं है । वरन् इन सबके साथ 'मेरे' को जोड़ना ही आसक्ति है | अनासक्त वह है, जो संसार में रहकर भी कमल की पंखुड़ियों की तरह निर्लिप्त जीता है । ___ जीवन में आसक्ति का दायरा, आयु क्षीण होने के साथ-साथ संकुचित होता हो, ऐसी बात नहीं है । वास्तव में जीवन का कलश जैसे-जैसे रीता होता है, आसक्ति और गहरी होती जाती है। व्यक्ति संसार में प्रवेश तो आम जीवन जीने के लिए ही करता है, लेकिन धीरे-धीरे ऐसे चक्रव्यूह में फंस जाता है, जिसमें प्रवेश करने के बाद बाहर निकलना दुष्कर हो जाता है । जाल बनाती है मकड़ी औरों को फंसाने के लिए. लेकिन उन बारीक और चिपचिपे रेशों में वह इतनी उलझ जाती है कि मकड़ी का जाल ही मकड़ी के लिए व्यूह बन जाता है। - मकड़ी के शरीर में एक विशेष ग्रन्थि होती है, जिससे 'एमिनो एसिड' स्रावित होता है । उसीसे मकड़ी धागा बुनती है । जाला इसका शिकार को फंसाने का साधन है । इसके जाले की विशेषता यह होती है कि जीव इसमें से निकलने के लिए जितना छटपटाता है, उतना ही उलझता जाता है। किसी को अपने शिकंजों में जकड़ने के लिए आतुर मकड़ी, किसी और को जकड़ पाये या न जकड़ पाये, उसकी अकड़ तब ढीली पड़ जाती है जब वह स्वयं ही अपने जाल में उलझ जाती है । मकड़ी की इस जाल से मुक्ति नामुमकिन तो नहीं, लेकिन टेढ़ी अवश्य अनासक्तिः संसार में संन्यास/९१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003891
Book TitleJyoti Kalash Chalke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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