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________________ जो सागर-सा शान्त, गगन-सा, नीरव औ' निःशब्द गभिर हो, जो भीतर से अति सक्रिय हो, पर बाहर से मूक बधिर हो। जिसके पग की चाप-चाप पर, और किसी का सुनियंत्रण हो, और कर्म की श्वास-श्वास पर, रूपांतर की लगी मुहर हो। डूब गया है मेरा सब कुछ अविचल एक शान्ति-सागर में, देख रही हैं आंखें तुमको ही तुमको, चर और अचर में। जान गया हूँ मैं इस जग में, इक तुम ही तुम तो जीते हो। इन सब रूपों-आकारों के पीछे तुम-ही-तुम बसते हो । अपरिवर्तनीय उपस्थिति में ही अपनी तुम बैठे-बैठे। अजस्र गति संचार किया करते हो, अगिन रूप निर्माण किया करते हो। तुमसे ही तो है सब श्वास चल रहे, शान्ति, शान्ति वह शान्ति धरा पर उतरे । यही है जानने जैसा, जीने जैसा, प्रार्थना करने जैसा । शान्ति, शान्ति वह शान्ति धरा पर उतरे । मुस्कुराएं और शान्ति की प्रार्थना करें । घर-घर में शान्ति के द्वार खुलें, यही अन्तःकामना । 90 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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