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________________ करे या भक्ति से शृंगारित करे । अपने आपको पूरी तरह परमात्मा को समर्पित करे । जो अपने आपको मिटा डालने के लिये तैयार है । जो उसे अपने दबे होठ, टेढ़ी आँख, देख-समझ चुका है वह अपने जीवन के साथ उसे जी लेगा। वहाँ वाणी मौन हो जाती है, केवल आँखें बोलती हैं, हृदय की आँखें । इसलिए इन सब झंझटों को छोड़ो कि परमात्मा कहाँ है, परमात्मा को आपने देखा या नहीं, परमात्मा को दिखा सकते हैं या नहीं? ये सब अर्थहीन बाते हैं। परमात्मा हम सबके साथ है, हमारे भीतर है । हर आँख का नूर है वह । अगर परमात्मा नहीं है, तो हम नहीं हैं । अन्तर्हृदय में, हृदय की श्रद्धा में परमात्मा का निवास है। पहले पहल तो बूंद को सागर में मिटना होता है, लेकिन एक क्षण वह आता है, जब सागर स्वयं ही बूंद में आकर समा जाता है । तब हम, हम नहीं रहते । कुछ और हो जाते हैं । दिखने में वही मनुष्य, वही इंसानी आकार, मगर जिसको जो होना होता है, वो वह ही हो जाता है । ठीक वैसे ही जैसे कोई लोहा पारस को छ जाये, तो वह लोहा सोने में तब्दील हो ही जाता है । जंग उतर जाता है, चमक लौट आती है और लोहा सोना हो जाता है । व्यक्तिगत चेतना के भीतर ईश्वरत्व के फूल खिल आते हैं, जिनकी सुवास, जिनका रस दिन-रात हमारी सांसों के साथ बहता है, हमारी धड़कन के साथ प्रफुल्लित रहता है। मैंने तो उसे ऐसे ही जाना है । सर्वत्र प्रभु को देखो, सबकी सेवा करो, सबसे प्रेम करो। यह प्रभु को अपने आप में और औरों के साथ जीने का सीधा-सरल तरीका है, मार्ग है। सभी ठौर प्रभु का मंदिर है और घड़ी सब पूजा की है। तो फिर प्रतिदिन प्रतिछिन मेरे, नवोत्सर्ग का एक पर्व हो। मेरे उठे हुए चरणों में, नव आशा हो, दिव्य गर्व हो। एक-एक कामना अर्घ्य हो. कर्म-कर्म मेरे तर्पण हो, अधिक पूर्णतर औ' विशालतर, दिन-प्रतिदिन मेरा अर्पण हो। मुझमें है भगवान | 89 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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