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________________ भगवान ने कहा-वत्स, तू जिस नगर में रहता है, वहाँ के सब नागरिकों से यह पूछ आ कि भगवान सभी की इच्छा पूर्ण करने वाले हैं, उनकी इच्छाएँ क्या हैं । भगवान का आदेश था, इसलिए दिनभर भटका । गली-गली भटका, घर-घर पहुंचा और एक लंबी-चौड़ी सूची बना लाया। भगवान ने कहा-जरा पढ़कर तो सुनाना । उसने पढ़कर सुनाया। किसी ने कुछ चाहा, किसी ने कुछ मांगा। हजारों लोगों की मांगों को सुनकर महावीर ने कहा-ब्राह्मण, अब तू मेरे एक प्रश्न का जवाब दे । तू हज़ारों लोगों के यहाँ जाकर आया, तूने सबकी इच्छाएँ, सबकी चाहतें सुनीं। क्या किसी ने यह कहा कि मुझे भगवान से उसकी भगवत्ता चाहिये? ऐसे विरले ही होते हैं, जो सही तौर पर उस निर्वाण के लिए, उस महापद के लिए, उस महामुक्ति के लिए प्रयास करते हैं और प्रयास करके उसे उपलब्ध हो जाते हैं । बाकी लोग तो बातें करते रह जाते हैं । माया की मदिरा में ही उलझे रह जाते भगवान के घर को भगवान का घर ही बना रहने दो । उसे दुःखड़ा रोने का या आमदनी का जरिया मत बनाओ । कोई भी मंदिर आय का साधन नहीं होता। हर मंदिर एक समर्पण का, न्यौछावर का स्थान होता है, जहाँ व्यक्ति को अपने जीवन को, अपने भावों को समर्पित करना होता है, तुम मंदिर में जाकर दो फूल चढ़ा देते हो, नारियल चढ़ा देते हो या अठन्नी-चवन्नी चढ़ा देते हो, बलि चढा देते हो। तुमने भक्ति के ये क्या-क्या रूप बना रखे हैं। किस धर्म में लिखा है कि चवन्नी चढ़ा देने से परमात्मा मिल जायेगा। अपने आपको समर्पित करो, अपने हृदय को समर्पित करो । हृदय का समर्पण ही उस तक पहुंचने का मार्ग है । __ परमात्मा के बारे में बोला नहीं जा सकता। वह तो रस है, पीयो और मस्त हो जाओ। उसे तो मौन होकर केवल जिया जा सकता है । उसको तो मन की शान्ति के साथ अहोभाव में जीया जा सकता है । वो तो केवल नृत्य की, खुमारी की, मस्ती की, मौन मुस्कान की, भक्ति की चीज है । ऐसी चीज है, जिसका संबंध केवल अस्तित्व के साथ है । अस्तित्व मौन रहता है, इसलिए चाहे मैं जितना भी परमात्मा के बारे में बोल जाऊं, फिर भी सूरज को दीया ही दिखाने जैसा होगा। परमात्मा के बारे में बोला नहीं जा सकता। उसे तो मौन मुस्कान में देखा जा सकता है; उसे मन की शान्ति के साथ केवल जीया जा सकता है। - वही व्यक्ति उस परमात्मा तक पहुंच सकता है, जो अपने मन को शान्त 88 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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