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________________ मिटने को तैयार नहीं होते हैं, जब तक बूंद अपना अस्तित्व खोने को तैयार नहीं है. मन अपने आपको विसर्जित करने को प्रस्तुत हीं है, तो बंद, बंद ही रहेगी। खुदी मिटे तो खुदा प्रगट होवे । गीता तो एक ही संदेश देती है कि मिटाओ अपने आपको, समर्पित करो। मैं को मिटा दो, कर्ता-भाव को मिटा दो। तुम तो ऐसे बन जाओ, नदिया में कोई तिनका बहता है । नदिया की धार जिस तरफ ले जाना चाहे, ले जाए। परमात्मा के प्रति समर्पित होने का भाव यही है कि छोड़ दिया, तुमने अपने सामर्थ्य को । वो जैसे हमारी नौका को खेना चाहता है; हम वैसे ही चले जा रहे हैं। उसकी हवाएँ हमें जहाँ पहुँचाना चाहे, हम वहाँ पहुँच रहे हैं। हमारा अपना प्रयत्न कुछ नहीं है-'अब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में ।' यह तो एक 'अर्घ्य' के रूप में हमारा जीवन समर्पित हो चुका है। तुम इसे जिधर ले जाना चाहो, यह नैया उधर ही चल पड़ेगी। उसके नाम पर जुट जाना, मर मिट जाना । हम उस पर मरेंगे, वह हम पर मरेगा। दो 'एक' हो जाएंगे। पहले बंद सागर में गिरी, फिर सागर बूंद में आ समाया। ___मुझे याद है, एक संत स्वाश्रित जीवन जीने के लिए सब्जी और फल बेचा करते थे । बड़ा शान्त प्रकृति का संत था। लोग उसके साथ हंसी-ठट्ठा कर जाते, मज़ाक कर जाते, मगर वो मुस्कुराता और चुप रहता। इतना ही नहीं, लोग सब्जी तो ले जाते, पर उसके बदले में खोटे सिक्के दे जाते । जब उसके हाथ में खोटे सिक्के आते, तो वह उन्हें पहचान जाता । वह आकाश की ओर देखता, मुस्कुराता और उन्हें अपनी झोली में डाल लेता। इस तरह उसके पास बहुत सारे खोटे सिक्के इकट्ठे हो गये। __ वह संत बूढ़ा हुआ और मरने के करीब आ पहुँचा । उसने झोली में से खोटे सिक्के निकाले और आकाश की ओर उछाल दिये और भगवान से प्रार्थना करने लगा कि भगवान मेरे प्राणांत का समय आ गया है। मैं अपने शरीर को विसर्जित कर रहा हूँ, लेकिन जिंदगी में पहली बार मैं तुम्हें अरदास करूंगा कि भगवान, मैंने जिंदगी भर खोटे सिक्के स्वीकार किये हैं; किसी को भी इंकार नहीं किया है । अब मैं तुम्हारे पास आ रहा हूँ । मैं भी एक खोटा सिक्का हूँ, मुझे भी खुशी-खुशी स्वीकार करना । कहते हैं कि मरने से पहले संत के भीतर एक नृत्य उमड़ा। वह उन्हीं सिक्कों पर निढाल होकर गिर पड़ा। जो महामूल्य था, वह 84 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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