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________________ दिव्यदृष्टि से अपने जीवन के दिव्यत्व को उपलब्ध कर सकें, उसे पहचान सकें। पहली बात मैं यह कहूंगा कि परमात्मा हम सबके साथ है, हमारे पास है। वह इतना करीब है, जितना और कोई नहीं हो सकता । दूसरी बात मैं यह कहना चाहूंगा कि परमात्मा हर नाम और आकार से मुक्त है । नाम तो सारे पंडितों ने दिये हैं । अब दशरथ के घर राम पैदा हो गये और किसी पंडित ने उनका नामकरण 'राम' कर दिया और हम राम-राम जपते रहे । लोग तो भगवान से भी मज़ाक कर लेते हैं । वे तो अपने बेटे का नाम भी राम रख लेते हैं । चलो इस बहाने ही सही राम नाम तो हो ही जायेगा । जिस परमात्मा ने परम ज्योति को उपलब्ध कर लिया, जिसने अपना भौतिक शरीर भी यहाँ नीचे छोड़ दिया, उसके लिए नाम के क्या मायने । नाम तो सारे आरोपित हैं, स्थापित हैं । नाम से अगर परमात्मा को मुक्त कर दिया जाये, तो संसार भर में भगवानों के नाम से जो वाद-विवाद, जो झगड़े होते हैं, वे निपट ही जायें । लोग जितने ज्यादा भगवानों के नाम पर लड़ते हैं, उतने अपने अधिकारों के लिए नहीं लड़ते। अगर एक आवाज़ गूंज जाये कि इस्लाम खतरे में है या हिन्दूत्व खतरे में है, तो अफरा-तफरी मच जाये, चारों ओर कत्ले-आम के हालात हो जायें । तुम तो परमात्मा को भजो, उस परमात्मा को जो तुम्हारे भीतर है । परमात्मा तो नाम-रहित है, नाम से मुक्त है। - परमात्मा का कोई आकार नहीं होता । वह निराकार होता है, हम सारे उसके ही तो आकार हैं । हर आकार में वह है । उसकी ज्योति में कोई फ़र्क नहीं होता। हां, दीयों में फ़र्क हो सकता है। कोई सोने का दीया, कोई चांदी का, कोई माटी का; कोई बुद्ध के नाम का, कोई महावीर के नाम का, तो कोई राम के नाम का। परमात्मा तो निराकार है, इसलिए कोई भी व्यक्ति उसके आकार को पकड़ नहीं सकता । उसे तो केवल जाना ही जा सकता है, जीया ही जा सकता है । तुम जागो, जानो और जीयो, इतना-सा ही मार्ग है, यही पथ है । यह पथ ही समस्त पंथों का सार है। ___ कोई अगर मुझसे पूछे कि गीता का सार क्या है, तो मैं कहूँगा कि भुला दो हर आकार को, हर रूप, हर भेद को, हर रंग को, भुला दो हर संग्रह, हर आसक्ति, हर द्वेष को । अपनी ही ज्योति में उस परम ज्योति को देखकर विनीत बनो । उसी में अपने आपको समर्पित करने का प्रयास करो। मिटे, तो मिलन होगा। बूंद अगर सागर में डूबने को तैयार हो, तो ही वह सागर हो सकती है। जब हम ही मुझमें है भगवान | 83 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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