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________________ दिशाओं में ढूंढ लेगा, मगर उसका ध्यान ग्यारहवीं दिशा की ओर नहीं जाता, जो स्वयं उसी को इंगित करती है। अगर ऐसा हो जाये तो भी बात बन जाये । अपनी दिशा की ओर उन्मुख बनो, अपने आप से थोड़ा प्यार करो। तुम वह ग्यारहवीं दिशा हो, तुम्हारा अन्तःकरण ही वह अद्भुत दिशा है। मीरा कहती है-बसो मेरे नैनन में नंदलाल । आओ मेरे प्रभु, मेरी आंखों में सदा-सदा के लिए वास करो। चाहे तुम बाहर छिपे हो या भीतर, मेरी आंखों में नृत्य करो। तुम्हारा निवास, तुम्हारा मन्दिर तो मेरी आंखें ही बन जायें । 'महावीरस्वामी नयनपथगामी भवत मे' हे महावीर स्वामी, आप मेरे नयन-पथगामी हों, मेरे इन नयनों के पथ से मेरे भीतर आएँ । प्रार्थना चाहे बाहर की करो या भीतर की, परमात्मा सब ओर हो । आकाश की तरह सर्वत्र है । वह तुममें है, तुम उसमें हो । तुम ही परमात्मा को नहीं पकारते, वह भी तुम्हें पुकारता है। परमात्मा हमें पुकार रहा है, अपनी ओर आने के लिए, लेकिन न तुम्हारा स्वर उस तक पहँच पाता है और न उसका स्वर तुम सुन पाते हो । इसलिए नहीं सुन पाते, क्योंकि बीच में बहुत बड़ा शोरगुल है। हमारे ही मन का शोरगुल, हमारी ही वृत्तियों का तूफ़ान, हमारे ही विचारों का दुष्चक्र । मन ही जब तक शान्त नहीं होता, तो भीतर के मन्दिरों की आवाज़ तुम तक कैसे पहुंचेगी? मन जब मौन हो, विसर्जित और शान्त-शून्य हो तो उसका स्वर, उसकी खुमारी, उसकी शान्ति और उसका आनन्द स्वतः उमड़ता है। ठीक वैसे ही जैसे झरने के रास्ते में आ रही चट्टान हट जाये और उसका कलकल निनाद करता हुआ जल-सोता बह पड़े। मन शान्त हो, तो उस तक पहुँच बने । मन का सरोवर शान्त हो, तो उसकी झलक देखने को मिले । तुम्हारा पात्र ही जब तक छेद वाला है, तब तक कुएं में से पानी कैसे निकाल पाओगे? कुआं तो पानी देने को तैयार है, मगर हमारा पात्र ही छिद्रयुक्त है, तो क्या किया जा सकता है। जब तक छेद न भरे, तब तक कुछ भी होने वाला नहीं है । कुएं के जल का आकंठ पान करना है, तो मन के छिद्रों को भरना होगा; तरंगों को चुप करना होगा, शोरगुल से मुक्त होना होगा। मन का शोर अगर शान्त नहीं होता है, तो परमात्मा आपके पास होते हुए भी नहीं होता है। तभी तो कृष्ण कहते हैं मैं सबके लिए हूँ, फिर भी नहीं हूँ। इसलिए ढूंढना परमात्मा को नहीं है, ढूंढना तो उन आंखों को है, जो उस परमात्मा को पहचान सकें । खोलना तो उन आंखों को है, जो आंखें खुलकर अपनी अन्तरदृष्टि और 82 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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