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को मिल जायेंगी । अगर इन फूलों और पत्तों को निहारो और इनसे प्यार करो तो इन पत्तों और फूलों में भी परमात्मा के शास्त्र स्पष्टतया लिखे हुए मिल जायेंगे । ऐसा कोई भी केन्द्र, स्थान या परिधि नहीं, जिसे हम परमात्मा से अलग रख सकें । वह सब जगह है । सारी जगह उसके कारण है। चूंकि परमात्मा को हम अपने से अलग नहीं कर सकते, परमात्मा हमसे अलग नहीं हो सकता, इसीलिए परमात्मा को ढूंढने की जरूरत नहीं है । परमात्मा को ढूंढने के लिए निकलने वाले लोग परमात्मा को उपलब्ध नहीं हो पाये। ढूंढा तो उसे जाता है जो वस्तु हो और जो कहीं खो जाये । मेरी प्रेरणा ढूंढने के लिए नहीं है और न कहीं खोजने के लिए
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है ।
लोग आते हैं और पूछते हैं कि क्या आपने परमात्मा को पा लिया है ? मुझे उनका प्रश्न ही बेतुका लगता है । वे तो इस तरह से पूछ रहे हैं; जैसे मैं जन्म-जन्मान्तर से परमात्मा से बिछुड़ा हूँ और मैंने आखिर लंबी तलाश के बाद परमात्मा को पा ही लिया । परमात्मा तो प्राप्त ही है और प्राप्त की फिर-फिर प्राप्त करने की कोई जरूरत नहीं होती । पाने के लिए प्रयास तो तब हो, जब वह अप्राप्त हो। वो तो वैसे ही है, जैसे हमारी जेब में सौ रुपये का नोट पड़ा है और हमें मालूम है कि सौ का नोट पड़ा है। तब हम सोचते हैं कि इससे क्या-क्या खरीदा जाये । अगर नोट खो जाये तो उसे ढूंढा जाये, पर उसे ढूंढने की व्यर्थ में मेहनत क्यों की जाये, जिससे हम जीवित हैं । उस परमात्मा को सुबह-शाम दीपदान करना कहाँ तक उचित है, जिस परमात्मा से हमारे स्वयं का जीवन प्रकाशित है । उस परमात्मा के मन्दिर में जाकर क्यों घंटनाद किया जाये, जिसके कारण हम स्वयं जागृत और जीवित हैं । भगवान सोया नहीं है कि तुम उसे घंटे बजा-बजाकर गाओ। वह तो अपने स्वरूप में स्थित है ।
सूरज हर पल आसमान में केन्द्रित है । जब हम रात के आलम में सो जाते हैं, तब भी सूरज कहीं-न-कहीं तो अपनी रश्मियाँ बिखेरता ही है । ऐसे ही हमारा परमात्मा, हमारा खुदा हम सब लोगों में केन्द्रित है, हमारी अपनी व्यक्तिगत चेतना में वह परमात्मा-चेतन अधिष्ठित है । इसीलिए कहता हूँ कि उसे ढूंढने की जरूरत नहीं है; लेकिन क्या करें लोगों की आदत ही ढूंढने की पड़ गई है । अपनी रोशनी में न ढूंढ पाये तो पड़ोसी की रोशनी में ढूंढेंगे, मगर ढूंढेंगे जरूर। मनुष्य दसों
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मुझमें है भगवान | 81
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