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ही योग है। ___ अन्तःकरण की शुद्धि के लिए कृष्ण दो अनिवार्य सूत्र देते हैं-'अपने चित्त और इन्द्रियों को वश में करके तथा मन को एकाग्र करके, यानी मन, चित्त और इन्द्रियों पर आत्म-नियंत्रण बरकरार हो। चित्त, इन्द्रियाँ व शरीर-इन सबका सम्बन्ध जगत के साथ है, जबकि अन्तःकरण का संबंध व्यक्ति के निजत्व के साथ है। आँख बाहर खुलती है, इसलिए बाहर का सौंदर्य ही देख पाती है; कान बाहर खुलते हैं, इसलिए बाहर की ध्वनि ही ग्रहण कर पाते हैं; नाक के छिद्र बाहर हैं, इसलिए बाहर की सुगन्ध-दुर्गन्ध ही महसूस कर पाते हैं; जीभ स्वाद लेती है, लेकिन स्वाद बाहर का है और त्वचा स्पर्श की संवेदना लेती है, लेकिन बाहर से। भीतर के मल-मूत्र की दुर्गन्ध नाक थोड़े ही ग्रहण करता है । जीभ से नीचे उतरते ही पदार्थ के स्वाद-अस्वाद का ज्ञान नहीं हो सकता । आँखें बाहर का सौन्दर्य देखती हैं, लेकिन इनकी पहुँच न तो भीतरी सौन्दर्य तक है और न भीतर की कालिख, कलुषता तक है । इन्द्रियाँ वहाँ इसलिए नहीं पहुँच पातीं, क्योंकि सारी इन्द्रियों का संबंध बाहर से है और मनुष्य के भीतर बैठा हुआ मनुष्य अतीन्द्रिय होता है । इन्द्रियों के द्वारा तो हम विषयों को ग्रहण करते हैं, वस्तु में रहने वाले भाव को ग्रहण करते हैं । इन्द्रियों के द्वारा हम स्वयं को उपलब्ध नहीं कर पाते । यह तभी संभव है जब हम अपनी इन्द्रियों को वश में कर लें, अतीन्द्रिय हो जाएँ। इन्द्रियाँ और इन्द्रियों के विषय दोनों के बीच रहने वाले आकर्षण से हम ऊपर उठ जायें।
___ व्यक्ति का चित्त उद्विग्न बना हुआ है, तो वह कभी क्रोधित होगा, कभी कामोत्तेजित और कभी लोलुप होगा । चित्त मनुष्य का कभी शान्त नहीं रहता। कृष्ण युद्ध की प्रेरणा देते हैं। वह युद्ध इसी चित्त के साथ ही तो करना है। अन्तर-युद्ध, आत्म-जितेन्द्रियता गीता की वास्तविक पृष्ठभूमि है । मनुष्य का चित्त ही तो वह उपद्रव मचाता है, जो भूतलोक का कोई शैतान भी नहीं मचाता होगा। और सबको तो वश में कर भी लिया जाये, मगर इस मन को वश में करना टेढ़ी खीर है। मन का कोई भी मार्ग न आत्मा तक पहुँचता है, न परमात्मा तक । मन का हर मार्ग मनुष्य को संसार की ओर ही ले जाता है। मन का मार्ग संसार को प्रशस्त करता है और मन को मिटाने का मार्ग हमेशा निर्वाण की राह दिखाता है । मन तो कहेगा, ऐसा करो; ऐसा करने से सुख मिलेगा, पर जितनी बार मन के कहे
निज से मंगल मैत्री | 75
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