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में बहे, उतनी ही बार सुख के नाम पर दुःख ही मिला। फूल खोजने गये, हाथ में कांटा ही लगा ।
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मन की भी अपनी पीड़ा है । माना, मन स्वयं एक कांटा है, एक कैक्टस है, लेकिन हर एक कैक्टस में भी इच्छा होती है कि वह भी एक दिन फूल बने । कैक्टस भी फूल होना चाहता है । हम अपने मन को केवल बाहर की ओर फेंकते हैं। नतीजा यह निकलता है कि मन कैक्टस का कैक्टस ही बना रह जाता है । अगर हम अपने मन को अपने अन्तःकरण से जोड़ें, तो मन के कांटे भी मन्दिर के फूल हो जायेंगे । जो मन मनुष्य को भटकाता है, वह मन एकाग्र हो जाये तो इसकी प्रचण्ड ऊर्जा मनुष्य को आत्म-साक्षात्कार में, अस्तित्व-बोध में, परमात्म-प्राप्ति में सबसे बड़ी सहकारी और मंगलमित्र साबित हो सकती है। मन तो अनन्त ऊर्जा का पुंज है। जो मन हमारे द्वारा क्रोध करवा सकता है, जो मन हमसे बड़े-से-बड़ा काम और पाप करवा सकता है, अगर वह सम्यक् दिशा थाम ले, सम्यक् मार्ग को स्वीकार कर ले, तो वह स्वयं पुण्य रूप बनकर, परमात्मा के साक्षात्कार में सबसे बड़ी भूमिका निभा सकता है । जीवन की हर उपलब्धि को वह आत्मसात कर सकता है । मनुष्य को सही अर्थ में मनुष्यत्व की गरिमा प्रदान कर सकता है ।
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गीता कहती है कि तुम मन को एकाग्र करने के लिए अपने नासाग्र पर दृष्टि को केन्द्रित करो । यही बात महावीर, बुद्ध और पतंजलि कहते हैं । जब भी अपने मन को स्थिर करना हो, तो नासाग्र पर अपने चित्त को स्थिर करो, मन टिकेगा । 'अभ्यासेन तु कौन्तेय, वैराग्येण च गृह्यते' - अभ्यास और वैराग्य के द्वारा मन अंततः निग्रहित हो ही जाता है। जब व्यक्ति का मन शान्त होता है, चित्त और इन्द्रियाँ मौन धारण कर लेती हैं, तो अन्तःकरण शान्त, परिमार्जित, निर्मल, परिसंस्कारित, प्रक्षालित होने लगता है । तब व्यक्ति के भीतर परमानंद की पराकाष्ठा की शान्ति उतरने लगती है। उस शान्ति को पाने के बाद कोई शान्ति शेष नहीं रहती । तब हर अशांति उससे निर्लिप्त रहती है । अशान्ति के वातावरण तो फिर भी बनते हैं, मगर वे वातावरण उसे अशान्त नहीं कर पाते । क्योंकि उसका मनुष्यत्व आम मनुष्यों से ऊपर उठ चुका होता है, वह किसी और जगत् का हो जाता है।
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सामान्यतया भौतिकता का आकर्षण जबरदस्त है । शरीर स्वयं
76 | जागो मेरे पार्थ
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