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दिशा में भी और संवेदनशीलता की दिशा में भी । इसलिए आज्ञाचक्र पर चंदन का इस्तेमाल होता है । बीस हजार साल में योग निरन्तर यह बात कहता रहा है कि आज्ञाचक्र के साथ जुड़ा मस्तिष्क जो बंद पड़ा है उसे सक्रिय किए बिना संसार के पार जाना संभव नहीं । महावीर ने इसे अमिधा कहा था, जिसे अब टेलिपेथी कहा जा रहा है ।
गीता का सार ही योग है, चाहे वह योग संन्यास - योग हो या कर्मयोग । गीता को योग से अलग नहीं किया जा सकता। तुम भी स्वयं को योग से अलग नहीं कर सकते । कृष्ण का तो हर किसी को सम्बोधन ही योगी का है । उनके लिए एक संन्यासी ही योगी नहीं है, एक श्रमिक भी योगी ही है । वह कर्मयोगी है । योग का सीधा-सा मायना होता है - जुड़ना । चाहे तुम कर्म से जुड़ोगे, तो भी योग से ही जुड़ रहे हो और संन्यास से जुड़ रहे हो, तो भी योग से ही जुड़ रहे हो । जब भी मनुष्य योग से जुड़ेगा, तब-तब वह अपने आप से ही जुड़ेगा । अपने आपसे जुड़ना वास्तव में अपने आप से ही मंगल मैत्री स्थापित करना है । जो आदमी अपने आप से नहीं जुड़ पाया, वह अपना ही शत्रु हुआ, अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी चलाई । औरों से जुड़ते रहे, खुद से अजनबी बने रहे तो क्या मतलब । योग तो गीता की मूल पूंजी और कुंजी है, यही गीता की प्रेरणा और संदेश है । गीता की वास्तविकता योग में निहित है ।
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तुम चाहे जितने लोगों से जुड़ जाओ, पर गीता से न जुड़े तो जुड़कर भी न जुड़ पाये । गीता से जुड़कर भी अपने आप से न जुड़ पाये, तो किसी से भी जुड़ना नहीं हुआ । स्वयं से जुड़ना ही योग है। जो अपने आपका स्वामी है, वही योगी
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है । जब मैं यह बात कह रहा हूँ कि योग से जुड़ो, तो मैं यह नहीं कहता कि संसार से भाग जाओ, गुफा में चले जाओ। मैं किसी को समाज से विमुख नहीं करता, न किसी को श्रम और कर्म से विमुख करता हूँ । समाज का मायना इतना-सा ही है कि कुछ लोग आपस में मिल-जुलकर रहते हैं, वह समाज है। चाहे वह समाज गृहस्थियों का हो या संन्यासियों का हो, समाज तो समाज है । समाज से कोई मुक्त नहीं है। संघ भी एक समाज ही है, शब्द का पर्याय भर बदला है । मैं से आपको मुँह मोड़ने की बात नहीं कहूँगा, क्योंकि श्रम करना तो जरूरी है । दिन भर निठल्ले बैठे रहना अध्यात्म की कतई सीख नहीं है, यह धर्म की नसीहत थोड़े ही है। अजी, कुछ कर्म करो, श्रम करो, स्वाश्रित जीवन जीओ ।
श्रम
निज से मंगल मैत्री | 73
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